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जनमेजय का नाग-यज्ञ

आस्तीक―भाई, यह भगवान् वादरायण का आश्रम है। देखा, यहाँ की लतावल्लरियों मे, पशु पक्षियों मे, तापस बालकों मे परस्पर कितना स्नेह है! ये सब हिलते डोलते और चलते फिरते हुए भी मानो गले से लगे हुए है। वहाँ के तृण को भी एक शान्ति का आश्वासन पुचकार रहा है। स्नेह का दुलार, स्वार्थ- त्याग का प्यार, सर्वत्र बिखर रहा है।

माणवक―भाई आस्तीक, बहुत दिन हुए, हमने और तुमने एक दूसरे को गले नही लगाया। आओ आज―।

आस्तीक―(गले लगकर) मेरे शैशवसहचर! वह विशुद्ध क्रीड़ा, वह वाल्यकाल का सुख, जीवन भर का पाथेय है। क्या वह कभी भूलने योग्य है? आज से हम तुम फिर वही पुराने मित्र और भाई हैं। जी चाहता है, एक बार फिर हाथ मिलाकर उसी तरह खेलें कूदें।

माणवक―भाई, क्या वह समय फिर आने को है? यदि मिल सके, तो मैं कह सकता हूँ कि उन दस वर्षों के लिये शेष नब्बे वर्षों का जीवन दे देना भी उपयुक्त है। क्या ही रमणीय स्मृति है।

आस्तीक―किन्तु भाई, हम लोगो का कुछ कर्तव्य भी है। दो भयंकर जातियाँ क्रोध से फुफकार रही हैं। उनमे शान्ति स्थापित करने का हमने बीड़ा उठाया है।

माणवक―भाई, चिन्ता न करो। भगवान की कृपा से तुम सफल होगे। प्रभु की बड़ी प्रभुता है।