पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/२६

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पहला अङ्क―तीसरा दृश्य

अपहरण किया जाता था; धनी लूटे जाते थे; व्यवसाय का मार्ग बन्द हो गया था। सीमा प्रान्त की दस्यु जातियों की उच्छृंंखलता बढ़ती जा रही थी। भला यदि मैं उनको दण्ड न देता, तो और क्या उपाय था?

तुर―यदि ऐसा ही था, तो तुम्हारी युद्धयात्रा आवश्यक थी। यही राजधम था। अस्तु, तुम्हारा यह ऐन्द्रमहाभिषेक तो हमने करा दिया, और वह सम्पन्न भी हुआ; किन्तु तुम्हे अपने पुरोहित काश्यप से क्षमा मॉगनी चाहिए; और इसकी सारी दक्षिणा उन्ही को दी जानी चाहिए। मैं इसी में प्रसन्न हूँगा।

जनमेजय―भगवान् की जैसी आज्ञा। कोई जाकर आचार्य को बुला लावे, और दक्षिणा भी प्रस्तुत हो।

[प्रतिहारी जाता है]
 

तुर―राजन्! मार्मिकता से प्रजा की पुकार सुनना। युद्ध- यात्राएँ अब तुम्हे विजय देंगी। इस अभिषेक का यही फल है। किन्तु राजन्, विजयो का व्यवसाय न चलाना, नहीं तो उसमे घाटा भी उठाना पड़ता है। सृष्टि को उन्नति के लिये ही राष्ट्र हैं। बल का प्रयोग वहीं करना चाहिए जहाँ उन्नति मे बाधा हो। केवल मद से उस बल का दुरुपयोग न होना चाहिए। तुम्हारी राजपरिषद् ने भारत के साम्राज्य का, तुम्हारी किशोरावस्था में, बड़े नियमित रूप से सुशासन किया है। यौवन और प्रभुत्व के दर्प में आकर काम न बिगाड़ बैठना।