पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०
जनमेजय का नाग-यज्ञ

दूस० विद्यार्थी―अच्छा, हम अपना देख लेंगे। तुम तो बताओ कि कौन काम करोगे जिसमें बिना परिश्रम के लोक तुम्हारे अनुकूल रहे।

त्रिविक्रम―किसी श्रीमन्त के यहाँ विदूपक बनूँगा। आदर से आऊँगा जाऊँगा। कोई काम न धन्धा! मूर्खता से भी लोगो को हँसा लूँँगा; निर्द्वन्द्व विचरण करते हुए जीवन व्यतीत करूँगा।

पह० विद्यार्थी―यह क्यों नहीं कहते कि निर्लज्ज बनूँगा!

त्रिविक्रम―अच्छा जाओ, अपना काम देखो। आज पुण्यक उत्सव है। गुरुजी की ओर से निमन्त्रण है।

[ दोनों विद्यार्थियों का प्रस्थान। वेद का प्रवेश। उन्हें देख कर त्रिविक्रम ध्यानस्थ हो जाता है। ]

वेद―बेटा त्रिविक्रम!

[ त्रिविक्रम आँखें वन्द किए हुए उच्च स्वर से मन्त्र पढ़ने लगता है। ]

वेद―अरे त्रिविक्रम!

[ वेद को खाँसी पाती है। त्रिविक्रम उछल कर खड़ा हो जाता हे ]

त्रिविक्रम―क्या है गुरू जी?

वेद―बेटा, अपनी गुरुआनी को समझाओ! आडम्बर फैला कर आप भी कष्ट भोगती है, मुझे भी दुःख देती है। समझे?

त्रिविक्रम―गुरुदेव! मेरी समझ मे तो कुछ आना असम्भव है। आपने इतना अध्ययन कराया, पर मेरी समझ में कुछ न आया?

वेद―( चौंक कर ) मूर्ख! मेरा सब परिश्रम व्यर्थ ही गया?