पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/५०

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पहला अङ्क―सातवाँ दृश्य

जनमेजय―अनर्थ हो गया! हाय रे भाग्य! आए थे मृगया खेल कर हृदय को बहलाने; यहाँ हो गया ब्रह्म-हत्या का महा- पातक! तपोनिधे! मेरा अपराध कैसे क्षमा होगा? आप कौन हैं? आपकी अन्तिम आज्ञा क्या है?

ऋषि―तुम आर्यावर्त के सम्राट् हो। ( ठहर कर ) अच्छा, शान्त होकर सुनो। अदृष्ट की लिपि ही सब कुछ कराती है। आह! अब मै नहीं बच सकता। मैं यायावर वंश का जरत्कारु हूँ। ओह! बड़ी वेदना है! तुम लोग कोमल मृगो पर इतने तीखे बाण चलाते हो! जनमेजय, मैं तुमको क्षमा करता हूँ। किन्तु कर्म फल तो स्वयं समीप आते है; उनसे भाग कर कोई बच नहीं सकता। मेरा पुत्र आस्तीक तुम्हारी समस्त ज्वालाओं को शान्त करेगा। स्मरण रखना, मनुष्य प्रकृति का अनुचर और नियति का दास है।―आह! जल―

[ भद्रक जाकर जल लाता है। जनमेजय जल पिलाता है। ]

जनमेजय―तपोधन, मेरा हृदय मुझे धिक्कार की ज्वाला मे भस्म कर रहा है। मैं ब्रह्म हत्या का अपराधो हुआ हूँ! भगवन् , क्षमा करें!

जरत्कारु―राजन्! क्षमा!

[ छटपटा कर मर जाता है ]
 

जनमेजय―सचमुच मनुष्य प्रकृति का अनुचर और नियति का दास है।

[ यवनिका पतन ]