पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/५१

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दूसरा अङ्क
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पहला दृश्य
स्थान―तपोवन
[ आस्तीक और मणिमाला का प्रवेश ]

मणिमाला―भाई! आज तो बहुत विलम्ब हुआ।

आस्तीक―हाँ मणि, आज विलम्ब तो हुआ। हम लोगो ने अपना पाठ समाप्त कर लिया है और पूजा के लिए फूल भी रख दिए है। चलो, उस झरने पर बैठ कर थोड़ा विश्राम करें।

[ दोनों आगे बढ़कर बैठते हैं ]
 

मणिमाला―पिताजी को देखे बहुत दिन हुए। जी चाहता है, एक बार जाकर उनके दर्शन करूँ, और माँ की गोद में सिर रख कर रोऊँ।

आस्तीक―पगली! भला रोने की भी कोई कामना है?

मणिमाला―हाँ भाई! तुम लोगो के तो बड़े बड़े मनोरथ, बड़ी बड़ी अभिलाषाएँ होती हैं; किन्तु हम लोगो के कोमल प्राणी मे एक बड़ी करुणामयी मूर्च्छना होती है। संसार को उसी सुन्दर भाव मे डुबा दूँ, उसी का रङ्ग चढ़ा दूँँ, यही मेरी परम कामना है। कभी कभी तो मुझे यह चिन्ता होती है कि ऐसे कोमल हृदय पर हाड़ मांस का यह आवरण क्यो है, जो दिन रात गर्व से फूला रहता है और हृदय को हृदय से मिलने नहीं देता!