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जनमेजय का नाग-यज्ञ

पड़ता है, जिसके साथ उसका कोई सम्बन्ध नही? और जहाँ उसका उद्भव है; वहाँ से क्यो कोई सम्पर्क नहीं?

मणिमाला―मैं समझ गई; भाई! क्या वह बात मुझे नहीं खटकती? बूआ को तुमसे कुछ स्नेह नहीं है। किन्तु भाई, हमारी अयोग्यता का, हमारे अपराध का, दण्ड देकर लोग हमे और भी दूर कर देते हैं। जिसके हम कोई नही हैं, वह तो अनजान के समान साधारण मनुष्यता का व्यवहार कर सकता है; किन्तु जिससे हमारी घनिष्टता है, जिससे कुछ सम्पर्क है, वही हमसे घृणा करता है, हमारे प्रति द्वेष को अपने हृदय मे गोपनीय रत्न के समान छिपाए रहता है। भाई, इसी से कहती हूँ कि माँ की गोद में सिर रख कर रोने को जी चाहता है। मैं स्त्री हूँ, प्रकट में रो सकूँगी। किन्तु तुम लोग अभागे हो, तुमको खुलकर रोने का भी अधिकार नहीं। रोओगे तो तुम्हारे पुरुषत्व पर धक्का लगेगा। तुम रोना चाहते हो, किन्तु रो नहीं सकते; यह भारी कष्ट है। तुम्हारे पिता नहीं रहे; उनकी हत्या हो गई! और माँ! (देखकर) नही नहीं, भाई क्षमा करो। मैने तुम्हे रुला दिया; यह मेरा अपराध है।

[ आस्तीक के आँसू पोंछती है ]
 

आस्तीक―नहीं मणि, मेरो भूल थी। रोना और हँसना ये ही तो मानवी सभ्यता के आधार है। आज मेरी समझ मे यह बात आ गई कि इन्ही के साधन मनुष्य को उन्नति के लक्षण कहे जाते है।