मानसिंहका घोड़ा।
१५ (जेठ बदी १) को बादशाहने एक घोड़ा जो सब घोड़ोंमें उत्तम था परम प्रीतिसे राजा मानसिंहको दिया। बादशाह लिखता है--"इस घोड़ेको ईरानके शाह अब्बासने कई दूसरे घोड़ों और उत्तम सौगातों सहित अपने विश्वासपात्र दास मनूचिहरके हाथ मेरे पिताके पास भेजा था। इस घोड़ेके देनेसे राजाने इतनी प्रसन्नता और प्रफुल्लता प्रगट की कि यदि मैं एक राज्य भी उसको देता तो भी शायदही इतना आनन्द उत्साह दिखाता। यह घोड़ा यहां आया उस समय ४ वर्षका था।, जब बड़ा हुआ तो सब मुगल और राजपूत चाकरोंने कहा कि इराक(१) से कोई ऐसा घोड़ा हिन्दुस्तानमें नहीं आया है। जब मेरे पिता खानदेश और दक्षिण मेरे भाई दानियाल को देकर आगरेको आने लगे तो अति कृपासे दानियालको आज्ञा की कि एक वस्तु जो तेरी मनचाही हो मुझसे मांग। उसने अवसर पाकर यह घोड़ा मांगा और उन्होंने उसको दे दिया था।"
गईं। ऐसी सतियोंको मा-सती और पोता-सती कहते हैं। पतिके
साथ जलनेवालीकी पदवी महासती है। इन घटनाओंके जो चित्र
पत्थरों पर दिये जाते थे उनमें पहचान के लिये सतियोंकी मूर्तियां
भी भिन्न भिन्न रूपसे खोदी जाती थीं। पतिके साथ जलनेवाली
की मूर्ति पतिके घोड़ेके आगे खड़ी और कहीं पतिके सामने बैठी
बनाई जाती थी। बेटे पोतोंके साथ जलनेवालियोंके चित्र में वह
मृत बालक उनको गोदमें दिखाये जाते थे। ऐसे कितनेही चित्र
अब भी महासती मासती और पोता सतियोंके पत्थरों पर खुदे हुए
मारवाड़के कितनेही गांवों में मौजूद हैं। उनका हाल हमने एक
अलग पुस्तक में लिखा है।
(१) ईशानको अरब लोग ईराक कहते थे इसीसे ईरानी घोड़े का नाम इराकी होगया था।