पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/१२१

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।।ओ३म्।।
जात-पांत का गोरखधंधा

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रं तन्न आसुव।। (यजु॰ अ॰ ३०। ३)

 

सृष्टि की उत्पत्ति

ब से प्रथम जो प्रश्न मनुष्य के हृदय में उठता है वह यह है कि यह सृष्टि, जो उसे दृष्टिगोचर हो रही है, कैसे उत्पन्न हुई । वेदादि सच्छास्त्रों के अध्ययन से इस विषय में जो निष्कर्ष निकाला गया है वह यह है कि अनन्तकाल से जिस प्रकार रात के पश्चात् दिन और दिन के पश्चात् रात्रि का चक्र चलता है इसी प्रकार प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय होता रहता है । प्रलय की अवधि समाप्त होने पर जब सृष्टि का आरंभ होता है और पृथिवी बन चुकती है तो प्रथम ओषधियां अर्थात् वृक्ष, लता आदि उत्पन्न होती हैं इसके पश्चात् जलचर मछली, मगर इत्यादि और स्थलचर गाय, भैंस धोड़ा, सिंह आदि और नभचर तोता, मैना, चील, कौवा आदि पक्षी पैदा होते हैं। सब से पीछे मनुष्य जाति उत्पन्न होती है।