इस से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह विचार कि राजनीतिक सुधार के पहले सामाजिक सुधार का होना आवश्यक नहीं केवल वहाँ तक ही ठीक है जहाँ तक कि परिवार के सुधार का सम्बन्ध है । समाज के पुनर्निर्माण के अर्थों में सामाजिक सुधार के पूर्व राजनीतिक सुधार सम्भव नहीं, इस बात का खण्डन करना कठिन है । साम्यवाद के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के मित्र और सहकारी फर्डिनेण्ड लसले जैसे विचारक को भी कहना पड़ा है कि राजनीतिक संस्थाओं का सामाजिक शक्तियों पर ज़रूर विचार करना चाहिए । सन् १८८२ में प्रशियन श्रोताओं में भाषण करते हुए लसले (La-salle) ने कहा था :- “शासन-पद्धति-सम्बन्धी प्रश्न (Constitutional questions) मुख्यतः अधिकार के प्रश्न नहीं, वरने शक्ति के प्रश्न होते हैं। किसी देश की वास्तविक शासन-पद्धति का अस्तित्व उस देश में पायी जानेवाली शक्ति की वास्तविक दशा में ही होता है। इसलिए राजनीतिक रचनाओं का मूल्य और स्थिरता तभी होती है, जब वे समाज में कार्यतः विद्यमान् शक्तियों की अवस्थाओं को ठीक ठीक प्रकट करती हैं।”
परन्तु लसले के पास जाने की आवश्यकता नहीं । हमें घर में ही इसकी साक्षी मिल जाती है। इस साम्प्रदायिक बँटवारे ( कम्युनल अवार्ड ) का क्या आशय है, जिसने राजनीतिक शक्ति को विभिन्न श्रेणियों और समाजों में निश्चित अनुपातों में बाँट दिया है ? मेरी राय में इसका आशय यही है कि राजनीतिक शासन-पद्धति को सामाजिक सङ्गठन का अवश्य ध्यान रखना होगा । यह बँटवारा दिखलाता है कि जिन राजनीतिज्ञों ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया था कि भारत में सामाजिक प्रश्न