पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/१३७

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वर्ण-भेद

ऊपर लिखित भारत की अर्धगति का चित्र जब आंखों के सामने आता है तो मन निराशा के समुद्र में डूब जाता है । परन्तु नितान्त निराश हो जाना भी नास्तिकता का लक्षण है। प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि ईश्वर से नाउम्मेद कभी न हो । संसार परिवर्तनशील है। वह एक ही दशा में नहीं रह सकता है काले बादलों में भी बिजली की चमक उत्पन्न हो जाता है। ईश्वर की दया से हमारे अन्दर ही एक समुदाय उत्पन्न हो चुका है। जो श्रीमद्भागवत के स्कंध ६ श्लोक १४ के अनुसार एक ईश्वर, एक वेद, एक ही ओंकार मंत्र और मनुष्यमात्र को एक जाति मानने लगा है। उसने अपना प्राचीन नाम जे आर्य था धारण कर लिया है। यह समुदाय भी अभी तक पूर्ण रूप से इन उच्च विचारों को आचरण में नहीं ला सका है। परन्तु यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हज़ारों वर्षों के बिगड़े हुये विचार का भी सुधर जाना शुभ लक्षण है। जब विचार उत्पन्न हो चुके हैं तो आचरण में भी अवेंगे। आर्यसमाज के प्रचंड प्रचार से हमारी भी निद्रा भंग होने लगी है और हमें भी अपनी अधोगति का ज्ञान होने लगा है। चारों तरफ उन्नति की पुकार मची हुई है; पुराने विवेकबुद्धिहीन विचारों की जगह नये विवेकपूर्ण विचार ले रहे हैं । अतः आशा है कि वह दिन दूर नहीं जब हम अपनी खोई हुई सम्पत्ति के अधिकारी होंगे। लेखक आशावादी है और ईश्वर की दया पर पूरा विश्वास रखता है। परन्तु ईश्वर उनकी ही सहायता करता है जो