पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/१३८

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जात-पांँत का गोरखधंधा



पुरुषार्थ करते हैं। हम सब का कर्त्तव्य होना चाहिये कि इन पवित्र विचारों की सहायता करें ।

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महाभारत क्या कहती है ?

श्रीमद्भागवत का प्रमाण आरंभ में दिया जा चुका है। अब वर्णभेद के विषय में महाभारत की सम्मति सुनिए-

एकवर्णमिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।
कर्मक्रियाविभेदेन चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम् ॥
सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरीपजाः।
ऐकेन्द्रियेन्द्रियार्थाश्च तस्माच्छीलगुणैर्द्विजः ॥
शूद्रोपि शीलसम्पन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् ।
ब्राह्मणोपि क्रियाहीनः शूद्रात् प्रत्यवरो भवेत् ॥

हे युधिष्ठिर ! इस संसार में पहले एक ही वर्ण था । गुण और कर्म में भेद पड़ने से चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र माने गये। क्या ब्राह्मण, क्या शुद्ध सब मनुष्यों की उत्पत्ति मूत्र और पूरीष के स्थान योनि से ही होती हैं; सब ही मनुष्य मल-मूत्र त्यागते हैं, सब मनुष्यों की इन्द्रिय, वासनायें समान हैं अर्थात् सब खाते हैं, पीते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, चलते हैं, मैथुन करते हैं इत्यादि ( इसलिये जन्म से ऊंच नीच मानना