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जात-पांँत का गोरखधंधा

इत्यतैः कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गताः ।
धर्मों यज्ञ क्रियां तेषां नित्यं न प्रतिविध्यते ।। ७ ॥
इत्येते चतुरो वणी येषां ब्राह्मी सरस्वती ।
विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभात् त्वज्ञानतां गताः ॥ ८ ॥

( महाभारत शांति• १८८ )

ऋषि भारद्वाज ने भृगु मुनि से पूछा कि हे भृगु मुनि ! काम, क्रोध, लोभ, भय, शोक, चिंता, क्षुधा और भ्रम आदि विकार हम सब लोगों में एक से हैं। फिर वर्णभेद क्यों माना जाता है ? पसीना, मूत्र, पुरीष, कफ, पित्त, रक्त सब मनुष्यों के शरीर में रहता है और बाहर निकलता है तो अलग अलग वर्ण क्यों माना जाता है ?

इस पर भृगुजी बोले कि पहले एक ब्राह्मण वर्ण ही था । चारों वर्णों में कुछ विशेष भेद नहीं है। ब्रह्म की उत्पन्न की हुई सृष्टि के लोग पहले ब्राह्मण थे। कर्मों से ही ब्राह्मण से क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र वर्ण बने । जो ब्राह्मण अपना धर्म छोड़ कर काम और भाग में आसक्त हुये, जो स्वभाव से क्रोधी, साहसी और उग्र थे वे क्षत्रिय गिने गये । जो ब्राह्मण गौ पालने लगे और खेती करने लगे थे वैश्य कहलाये। जो ब्राह्मण भ्रष्ट आचार से रहने लगे, जो लोभ में पड़ कर हिंसा करने लगे, सब प्रकार के कर्म करने लगे और सत्य को त्याग दिया वे शूद्र समझे गये।