क्योंकि वे अनुभव करते थे कि पेटरीशियन कौंसिल शासन-कार्य
में प्लीबियनों के साथ द्वैतभाव रखते हैं। बाहर से देखने पर
उन्हों ने बड़ा लाभ प्राप्त कर लिया था, क्योंकि रोम की प्रजा-
तन्त्री शासन-पद्धति में एक कौंसिल को दूसरे कौंसिल के कार्य
को रद्द कर देने का अधिकार था । परन्तु क्या वास्तव में भी
उनको कुछ लाभ था ? इसका उत्तर नकार में है। प्लीबियन
लोगों को कभी कोई ऐसा प्लीबियन प्रतिनिधि न मिल सकी,
जिसे बलवान मनुष्य कहा जा सकता और जो पेट्रीशियन प्रति-
निधि से स्वतन्त्र रह कर कार्य कर सकता । साधारण रीति से
प्लीबियनों को एक बलवान प्लीबियन प्रतिनिधि मिलना चाहिए
था, क्योंकि उसका चुनाव प्लीबियन लोग खुद अपने में से करते
थे । प्रश्न यह है कि उनको कभी कोई बलवान प्लीबियन क्यों न
मिल सका, जो उनका प्रतिनिधित्व करता ? इस प्रश्न का उत्तर
प्रकट करता है कि धर्म को मनुष्यों के मन पर कितना शासन है।
समूची रोमन जनता का यह सर्वसम्मत विश्वास था कि कोई
भी अफ़सर तब तक किसी पद को ग्रहण नहीं कर सकता, जब तक
कि डेल्फी की देव-वाणी इस बात की घोषणा न कर दे कि देवी
उसको स्वीकार करती है । डेल्फी की देवी के पुरोहित सब पेटरी-
शियन थे । इस लिए जब कभी प्लीबियने ऐसे मनुष्य को प्रति-
निधि बनाते थे, जिसके विषय में पता हो कि यह पेटरीशियन के
विरुद्ध कट्टर पार्टीमैन, या भारत में प्रचलित परिभाषा में "कम्यूनल"
(साम्प्रदायिक) है,तो देव-वाणी सदा विघोषित कर देती थी कि देवी
उसे स्वीकार नहीं करती। इस प्रकार धोखे से प्लीबियनों के अधिकार
छीन लिए जाते थे । परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि प्लीबियन
लोग अपने साथ यह ठगी इस लिए होने देते थे कि पेटरिशियनों