की तरह उन को अपना भी दृढ़ विश्वास था कि किसी अफ़सर के
अपने पद का कार्य सँभालने के पहले देवी की स्वीकृति आव-
श्यक है, लोगों द्वारा उसका चुना जाना ही पर्याप्त नहीं । यदि प्लीबि-
यन इस बात पर लड़ते कि चुनाव ही पर्याप्त है, देवी की स्वीकृति
की कोई आवश्यकता नहीं, तो वे अपने प्राप्त किये हुए राजनीतिक
अधिकारों से पूरा-पूरा लाभ उठा लेते । परन्तु उन्हों ने ऐसा नहीं
किया । वे दूसरा प्रतिनिधि चुनने पर सहमत हो जाते थे, जो उन
के अपने मतलब के लिये तो कम, परन्तु देवी के लिये अधिक
योग्य होता था, अर्थात् जो वास्तव में पेटरिशियनों का अधिक
अज्ञाकारी होता था। मज़हब को छोड़ने के बदले प्लीबियनों ने
उस लौकिक लाभ को छोड़ दिया, जिस के लिए उन्होंने इतना घोर
संग्राम किया था । क्या इस से यह सिद्ध नहीं होता कि मज़हब में
यदि सम्पत्ति से अधिक नहीं तो उस के बराबर तो शक्ति
अवश्य है ?
साम्यवादियों को भूल इस बात में है कि वे मान लेते हैं क्योंकि
योरपीय समाज का वर्तमान अवस्था में धन एक प्रधान शक्ति है,
इस लिए भारत में भी वह प्रधान शक्ति है या अतीत काल में भी वह
प्रधान शक्ति थी । मजहब, सामाजिक स्थिति और सम्पत्ति, ये
सब शक्ति और प्रभुता के स्रोत हैं। इन से एक मनुष्य दूसरे
मनुष्य की स्वतन्त्रता का निग्रह करता है । एक का एक
अवस्था में प्राधान्य रहता है, दूसरी का दूसरी अवस्था में । बस,
इतना ही अन्तर है। यदि स्वाधीनता आदर्श है और यदि उस
स्वाधीनता का अर्थ उस प्रभुता का नाश है, जो एक मनुष्य दूसरे
मनुष्य पर रखता है, तब यह स्पष्ट है कि इस बात पर आग्रह
नहीं किया जा सकता कि आर्थिक सुधार ही एक मात्र ऐसा सुधार