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साम्यवाद और वर्ण-भेद


है, जो करने के योग्य है । यदि किसी विशेष समय में या किसी विशेष समाज में शक्ति और प्रभुता सामाजिक और धार्मिक हो तो सामाजिक सुधार तथा धार्मिक सुधार को आवश्यक सुधार मानना पड़ेगा।

इस प्रकार भारत के साम्यवादियों ने जो इतिहास का आर्थिक अर्थ ग्रहण किया है, इस का खण्डन हो सकता है। परंतु मैं स्वीकार करता हूं कि साम्यवादियों के इस विवाद की दृढ़ता के लिए कि सम्पत्ति का समीकरण ही एक मात्र वास्तविक सुधार है। और यही सब से पहले होना चाहिए, इतिहास का आर्थिक अर्थ आवश्यक नहीं । परन्तु मैं साम्यवादियों से जो बात पूछना चाहता हूँ वह यह है -क्या पहने सामाजिक व्यवस्था का सुधार किये बिना आप आर्थिक सुधार कर सकते हैं ? ऐसा जान पड़ना है कि भारत के साम्यवादियों ने इस प्रश्न पर विचार नहीं किया । मैं उन के साथ अन्याय नहीं करना चाहता । मैं यहाँ आगे एक चिट्ठी से उद्धरण देता हूँ जो एक प्रमुख सम्यवादी ने, कुछ मास हुए, मेरे एक मित्र को लिखी थी। उस में उन्हों ने लिखा था--"मेरा विश्वास नहीं कि हम भारत में तब तक किसी स्वतन्त्र समाज का निर्माण कर सकते हैं, जब तक कि एक श्रेणी दूसरी श्रेणी के प्रति इस प्रकार का दुर्व्यवहार करती और उसे दबाती है । साम्यवादी आदर्श में मेरा विश्वास है, इसलिए विभिन्न श्रेणियों और समूहों के व्यवहार में पूर्ण समता में मेरा विश्वास होना अनिवार्य है। मेरी समझ में साम्यवाद ही इस और दूसरी समस्याओं का सच्चा उपाय पेश करता है ।"

अब मैं पूछना चाहता हूँ “क्या साम्यवादी के लिए इतना कह देना ही पर्याप्त हैं -"मैं विभिन्न श्रेणियों के व्यवहार में पूर्ण