दिया जाय । इसका अर्थ है कि बहुत से लोगों के जीवन को
निःसत्व अरि अन्धकारमय बना दिया जाय, ताकि थोड़े से
मनुष्य जीवन और प्रकाश पा सकें । संसार में दूसरा कोई भी
ऐसा देश नहीं, जिसने अपनी ही बनायी हुई बुराइयों से भारत
के समान दुःख और हानि उठायी हो । दुःख उठाते हुए भी हम
लोग सामाजिक बुराइयों को क्यों सहन करते रहे हैं ? संसार के
दूसरे देशों में सामाजिक क्रान्तियाँ होती रही हैं। वैसी ही
क्रान्तियाँ भारत में क्यों नहों हुई ? इसका केवल एक ही उत्तर
है, और वह यह कि इस राक्षसो वर्ण-व्यवस्था ने हिन्दू जनता
को क्रान्ति करने के लिए पूर्ण रूप से अयोग्य बना दिया था ।
वे शम्त्र धारण नहीं कर सकते थे और शस्त्रों के बिना विद्रोह
करना सम्भव न था। वे अब हलवाहे थे या उन्हें नीच ठहरा कर
हलवाहा बना दिया गया था और उन्हें हले छोड़कर तलवार पकड़ने
की आज्ञा न थी। उनके पास सङ्गीनें न थीं, इस लिए जो कोई भी
चाहता था, उनकी छाती पर बैठ सकता था और वैठ जाता था ।
चातुर्वर्ण्य के कारण वे शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते थे । वे अपने
उद्वार का उपाय सोच या जान न सकते थे ।उनको नीच ठहराया
गया था । न उनको छुटकारा पाने की रीति मालूम थी और न
उनके पास उद्वार का कोई साधन ही था, इस लिए उन्होंने समझ
लिया था कि परमेश्वर ने ही हमारे भाग्य में सदा की दासता बढीं है।
चातुर्वर्ण्य से बढ़कर दूसरा कोई अनादर और दुर्गति नहीं हो
सकती । यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो लोगों को निर्जीव, पंगु और
लूला बना कर उन्हें उपकारक कार्यों के लिए असमर्थ कर देती है-
इसमें रत्ती-भर भी अत्युक्ति नहीं । इतिहास में इसके पर्याप्त
प्रमाण मिलते हैं। भारतीय इतिहास में केवल एक ही ऐसा काल
पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/३१
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७
वर्ण-भेद की हानियाँ