के पर्व एक ही हैं, तो भी विभिन्न वर्णों के एक-जैसे पर्वो को अनु-
रूप रीति से मनाने से हिन्दू जुड़ कर एक अखण्ड समाज नहीं
बने। इस के लिए जिस बात की आवश्यकता है, वह है मनुष्य का
एक साझे के कार्य में भाग लेना, ताकि उस में वही मानसिक
आवेग जाग्रत हो, जो दूसरों को उत्साहित कर रहा है । किसी
सम्मिलित कार्य में किसी व्यक्ति को भागीदार या साझी बनाना
जिस से वह उस कार्य की सफलता को अपनी सफलता और
उस की विफलता को अपनी विफलता समझे, यही एक सच्ची
चीज़ है, जो मनुष्यों को इकट्ठा करती और उन का एक समाज
बनाती है। वर्ण-भेद साझे के काम को रोकता है और साझे के
काम को रोक कर इस ने हिन्दुओं को एकीभूत जीवनवाला
और अपने अस्तित्व का अनुभव करने वाला समाज बनने से
रोक दिया है ।
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हाल में जो वर्जित और आंशिक रूप से वर्जित क्षेत्रों के विषय में विवाद चला था, उस ने जनता का ध्यान जिन्हें भारत की आदिम जातियाँ कहा जाता है उन की स्थिति की ओर आक- र्षित किया है। उन की संख्या अधिक नहीं तो १३ लाख तो ज़रूर है। इस बात को छोड़ कर भी कि नये राजनीतिक विधान से उन को अलग रखना उचित है या अनुचित, यह सचाई फिर भी बनी रहती है कि ये आदिम जातियाँ एक ऐसे देश में, जो सहस्रों वर्षों की पुरानी सभ्यता की डींग मारता है, अपनी पहली अस-