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आदिम निवासी और जाति-भेद


भ्य दशा में ही पड़ रही हैं। केवल इतना कि वे असभ्य हैं, वरन उन में से कुछ लोग तो ऐसे पेशे करते हैं जिन से वे जरा- यम-पेशा ( criminal tribes ) कहलाने लगे हैं। तेरह लाख मनुष्य सभ्य संसार के बीच रहते हुए अभी तक भी जङ्गली अवस्था में हैं और परम्परागत अपराधियों का जीवन बिता रहे हैं ! और हिन्दुओ ने कभी इस के लिए लज्जा का अनुभव नहीं किया। यह घटना ऐसी है, जिस की तुलना मिलना कठिन है । इस लज्जाजनक दशा का क्या कारण है ? इन आदिम निवासियों को सभ्य बनाने और किसी अधिक प्रतिष्ठित रीति से आजीवि- कोपार्जन करना सिखाने का यत्न क्यों नहीं किया गया ?

आदिम निवासियों की इस जङ्गली अवस्था का कारण हिन्दु सम्भवतः उन की आजन्मिक मूर्खता बतायेंगे । सम्भवतः व इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि आदिम निवासी इस लिए जङ्गली रह गये हैं, क्यों कि हम ने उन को सभ्य बनाने का, उन को दुवा-दारू की सहायता देने का, उन का सुधार करने का और उन को अच्छे नागरिक बनाने का कोई यत्न नहीं किया । परन्तु मान लीजिये कि कोई हिन्दू इन आदिम निवासियों के लिए वही कुछ करना चाहता जो ईसाई मिश्नरी उन के लिए कर रहा है, तो क्या वह ऐसा कर सकता ? मेरी राय है, बिलकुल नहीं । आदिम निवासियों को सभ्य बनाने का अर्थ है उन को अपना बनाना, उन के बीच निवास करना और सहानुभूति पैदा करना, सारांश यह कि उन पर प्रेम करना । हिन्दू के लिए ऐसा करना कैसे सम्भव है ? उस का सारा जीवन उस के वर्ण या जात-पाँत को बचाये रखने का एक चिन्तित उद्योग-मात्र है। जात-पाँत उस की वह बहुमूल्य वस्तु है, जिस को वह प्राण देकर भी बचायेगा