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जातिभेद का उच्छेद


इस से पूर्णतः सिद्ध हो जाता है कि सामाजिक सुधार का राज़नीतिक सुधार से कुछ सम्बन्ध नहीं ? आइये, तनिक इस दृष्टि से अछुतों के प्रति सवर्ण हिन्दुओं के व्यवहार पर विचार करें। इस से इस विषय को समझने में सहायता मिलेगी।

पेशवाओं के शासन-काल में, महाराष्ट्र देश में, यदि कोई सवर्ण हिन्दू सड़क पर चल रहा हो तो अछूत को वहाँ चलने की आज्ञा नहीं होती थी, ताकि कहीं उसकी छाया से वह हिन्दू भ्रष्ट न हो जाय । अछूत को अपनी कलाई पर या गले में निशानी के तौर पर एक काला डोरा बाँधना पड़ता था, ताकि हिन्दू उसे भूल से स्पर्श न कर बैठे । पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों के लिए राजाज्ञा थी कि वे कमर में झाड़ू बाँध कर चलें । चलने से भूमि पर उनके पैरों के जो चिह्न बने, उनको उस झाड़ से मिटाते जायें, ताकि कोई हिन्दू उन पदचिह्नों पर पैर रखने से अपवित्र न हो जाय । पूना में अछूत को गले में मिट्टी की हाँडी लटका कर चलना पड़ता था, ताकि उसे थूकना हो तो उस में थूक ; क्योंकि भूमि पर थूकने से यदि उसके थूक पर किसी हिन्दू का पाँव पड़ गया, तो वह अपवित्र हो जायगा ।

मध्य भारत में बलाई नाम की एक अछूत जाति रहती है । उसका कुछ वर्णन ४ जनवरी १९२८ के “टाइम्ज़ आव इण्डिया" में छपा था। पत्र के संवाददाता ने लिखा था कि सवर्ण हिन्दुओं ने अर्थात् कालोटों, राजपूतों और ब्राह्मणों ने, जिनमें ज़िला इन्दौर के कनारिया,बिचोली हफसी,बिचोली मरदाना और लगभग १५ दूसरे गाँवों के पटेल और पटवारी भी थे, अपने अपने गाँव के बलाइयों को सूचना दी कि यदि तुम हम में रहना चाहते हो, तो तुम्हें निम्न-‌