इसके उपरांत अपनी दृढ़ता और छात्रगौरव की व्यंजना, देखिए कैसे अर्थगर्भित वाक्य द्वारा वह करती है—
तुम, पिउ! साहस बाँधा, मैं दिय माँग सेंदूर।
दोउ सँभारे होइ सँग, बाजै मादर तूर॥
तुम युद्ध का साहस बाँधते हो और मैं सती का बाना लेती हूँ। इन दोनों बातों का जब दोनों ओर से निर्वाह होगा तभी फिर हमारा तुम्हारा साथ हो सकता है। यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए और मैं सती न हुई तो साथ न होगा; यदि तुम पीठ दिखाकर भाग आए तब भी मैं तुमसे न मिल सकूँगी। यदि दोनों ने अपने अपने पक्ष का निर्वाह किया, जय और पराजय दोनों अवस्थाओं में मिलाप हो सकता है—तुम जीतकर आए तो इसी लोक में और मारे गए तो उस लोक में।
देवपाल की दूती—इसका चित्रण दूतियों का सामान्य लक्षण लेकर ही हुआ है। दूतियों में जैसा आडंबर, धूर्तता, प्रगल्भता, वाक्चातुर्य दिखाने की परिपाटी है, वैसा ही कवि ने दिखाया है। पहले तो अपने ऊपर कुछ स्नेह और विश्वास उत्पन्न करने के लिये वह पद्मिनी के मायके की बनती है, फिर उसके रूप यौवन आदि का वर्णन करके उसके हृदय में विषयवासना उद्दीप्त करना चाहती है। परपुरुष की चर्चा छेड़ने पर जब पद्मिनी चौंककर कहती है कि तू मेरे ऊपर मसि या कालिमा लगाना चाहती है तब वह 'मसि' शब्द पर इस प्रकार तर्क करती है—
पद्मिनि! पुनि मसि बोलु न बैना। सो मसि देखु दुहुँ तोरे नैना॥
मसि सिंगार, काजर सब बोला। मसिक बुंद तिल सोह कपोला॥
लोना सोइ जहाँ मसि रेखा। मसि पुतरिन्ह जिन्ह सों जग देखा॥
मसि केसहि, मसि भौंह उरेही। मसि बिनु दसन सोभ नहिं देही॥
सो कस सेत जहाँ मसि नाहीं। सो कस पिंड न जहँ परछाहीं?॥
देखिए, 'लोना सोइ जहाँ मसि रेखा' कहकर दूती किस प्रकार मसि भीनते हुए जवान की ओर इशारा करके कामवासना उत्पन्न करना चाहती है। फिर अंत में श्वेत और कृष्ण—सफेद और स्याह—को जगत् में सापेक्ष दिखाकर पद्मिनी का संकोच दूर करना चाहती है। अंतिम युत्ति तो दार्शनिकों की सी है।
अलाउद्दीन—अपने बल, प्रताप और श्रेष्ठता के अभिमान में अलाउद्दीन इस बात को सहन नहीं कर सकता कि और किसी के पास कोई ऐसी वस्तु रहे जैसी उसके पास न हो। जब राघव चेतन पद्मिनी की प्रशंसा करता है तब पहले तो उसे यह समझकर बहुत बुरा लगता है कि मेरे हरम में एक से एक बढ़कर सुंदरी स्त्रियाँ हैं, उन सबसे बढ़कर सुंदरी का होना यह एक राजा के यहाँ बतला रहा है। पर जब राघव चेतन स्त्रियों के चार भेद बतलाकर पद्मिनी के रूप का विस्तृत वर्णन करता है तब उसे रूपलोभ आ धरता है और वह चित्तौर दूत भेजता है। रत्नसेन के क्रोधपूर्ण उत्तर पर वह चढ़ाई कर देता है। इस चढ़ाई के कारण लोभ और अभिमान ही कहे जायँगे, क्रोध तो लोभ और अभिमान की तुष्टि के मार्ग में बाधा पड़ने के कारण उत्पन्न हुआ। अलाउद्दीन वीर था। अतः वीरों का सम्मान उसके हृदय में था। बादशाह का संधिसंबंधी प्रस्ताव जब राजा रत्नसेन ने स्वीकार कर