पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१२२

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लिया तब इस बात की सूचना बादशाह को देते समय सरजा ने चापलूसी के ढंग पर राजपूतों को 'काग' कह दिया। इसपर अलाउद्दीन ने उसको यह कहकर फटकारा कि वे काग नहीं हैं, काग हो तुम जो धूर्तता करते हो और इधर का संदेसा उधर कहते फिरते हो। काग धनुष पर बाण चड़ा हुआ देखते ही भाग खड़े होते हैं, पर वे राजपूत यदि हमारी ओर धनुष पर बाण चढ़ा देखें तो तुरंत सामना करने के लिये लौट पड़े।

'पद्मावत' के पात्रों में राघव और अलाउद्दीन ही ऐसे हैं जिनके प्रति अरुचि या विरक्ति का भाव पाठकों के मन में उत्पन्न हो सकता है। इनमें से राघव के प्रति तो जायसी ने अपनी अरुचि का आभास दिया है; पर कथा के बीच में अलाउद्दीन के प्रति उनके किसी भाव की झलक नहीं मिलती। हाँ, ग्रंथ के अंत में 'माया अलादीन सुलतानू' कहकर उसके असत् रूप का आभास दिया गया है। अलाउद्दीन का आचरण अच्छा कभी नहीं कहा जा सकता। किसी की व्याही स्त्री माँगना धर्म और शिष्टता के विरुद्ध है। उसके पाचरण के प्रति कवि की यह उदासीनता कैसी है? पक्षपात तो हम कह नहीं सकते, क्योंकि जायसी ने कहीं इसका परिचय नहीं दिया है। उसके बल और प्रताप को कवि ने जो रत्नसेन के बल प्रताप से अधिक दिखाया है वह उचित ही है क्योंकि अलाउद्दीन एक बड़े भूखंड का बादशाह था। पर राजपूतों की वीरता बादशाह के बल और प्रताप के ऊपर दिखाई पड़ती है।

आठ वर्ष तक चित्तौर गढ़ को घेर रहने पर भी अलाउद्दीन उसे न तोड़ सका। इसके अतिरिक्त कवि ने अलाउद्दीन की दूसरी चढ़ाई में रत्नसेन का मारा जाना (जैसा कि इतिहास में प्रसिद्ध है) न दिखलाकर उसके पहले ही एक राजपूत के हाथ से मारा जाना दिखाया है। यदि कवि बादशाह द्वारा राजा का गर्व चूर्ण दिखाया चाहता तो ऐसा कभी न करता। उसने रत्नसेन के मान की रक्षा की है। अतः कवि की उदासीनता या मौन का कारण पक्षपात नहीं है। बल्कि मुसलमान बादशाहों की बराबर चली आती हुई चाल है जो कुचाल होने पर भी व्यक्तिगत नहीं कही जा सकती।

इस प्रकरण के प्रारंभ में ही स्वभावचित्रण हमने चार प्रकार के कहे थे। इनमें से जायसी के सामान्य मानवी प्रकृति के चित्रण के संबंध में अभी तक कुछ विशेष नहीं कहा गया। कारण यह है कि इसका सन्निवेश 'पद्मावत' में बहुत कम मिलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने जिस प्रकार स्थान स्थान पर मनुष्य मात्र में सामान्यतः पाई जानेवाली अंतर्वत्ति की झलक दिखाई है, उस प्रकार जायसी ने नहीं। एक उदाहरण लीजिए। गौरी के मंदिर में जाकर इच्छा रहते भी जानकी का राम की ओर न ताककर आँख मूंदकर ध्यान करने लगना उस कृत्रिम उदासीनता की व्यंजना करता है जो ऐसे अवसरों पर स्वाभाविक होती है। सखियों ने उस अवसर पर जो परिहासकी स्वच्छंदता दिखाई है वह भी सामान्य स्वभावगत है। पर जायसी की पद्मावती महादेव के मंडप में सीधे जोगी रत्नसेन के पास जा पहुँचती है और उसकी सखियों में ऐसे अवसर पर स्वाभाविक परिहास का उदय भी नहीं दिखाई पड़ता है।

रूप और शील के साक्षात्कार से मनुष्य मात्र की अंतर्वृत्ति जिस रूप की