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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१२३

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हो जाती है उसकी बहुत सुंदर झाँकी गोस्वामी जी ने उस समय दिखाई है जिस समय वनवासी राम को जनपदवासी कुछ दूर तक पहुँचा आते हैं और उनकी वाणी सुनने के लिये कुछ प्रश्न करते हैं। कैकेयी और मंथरा के संवाद में भी मनोवृत्तियों का बहुत ही सूक्ष्म निरीक्षण है। जायसी भिन्न भिन्न मनोवृत्तियों की परख में ऐसी दक्षता नहीं दिखलाते।

कहने का मतलब यह नहीं कि जायसी ने इस बात की ओर ध्यान कुछ नहीं दिया है। गोरा बादल के प्रतिज्ञा करने पर कृतज्ञतावश पद्मिनी के हृदय में उन दोनों वीरों के प्रति जो महत्व की भावना जाग्रत होती है वह बहुत ही स्वाभाविक है। पर ऐसे स्थल बहुत कम हैं। सामान्यतः यही कहा जा सकता है कि भिन्न भिन्न परिस्थितियों की वृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण जायसी में बहुत कम है।

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मत और सिद्धांत

यह आरंभ में ही कहा जा चुका है कि मुसलमान फकीरों की एक प्रसिद्ध गद्दी की शिष्यपरंपरा में होते हुए भी, तत्वदृष्टिसंपन्न होने के कारण, जायसी के भाव अत्यंत उदार थे। पर विधिविरोध, विद्वानों की निंदा, अनधिकार चर्चा, समाजविद्वेष आदि इनकी उदारता के भीतर नहीं थे। व्यक्तिगत साधना की उच्च भूमि पर पहुँचकर भी लोकरक्षा और लोकरंजन के प्रतिष्ठित आदर्शों को ये प्रेम और संमान की दृष्टि से देखते थे। न्यायनिष्ठ राजशक्ति, सच्ची वीरता, सुख-विधायक प्रभुत्व, अनुरंजनकारी ऐश्वर्य, ज्ञानवर्धक पांडित्य में ये भगवान् की लोकरक्षिणी कला का दर्शन करते थे और उनकी स्तुति करना वाणी का सदुपयोग मानते थे। साधारण धर्म और विशेष धर्म दोनों के तत्व को ये समझते थे। लोक-मर्यादा के अनुसार जो संमान की दृष्टि से देखे जाते हैं उनके उपहास और निंदा द्वारा निम्न श्रेणी की जनता को ईर्ष्या और अहंकार वृत्ति को तुष्ट करके यदि चाहते तो ये भी एक नया 'पंथ' खड़ा कर सकते थे। पर इनके हृदय में यह वासना न थी। पीरो, पैगंबरों, मुल्लों और पंडितों की निंदा करने के स्थान पर इन्होंने ग्रंथारंभ में उनकी स्तुति की है और अपने को 'पंडितों का छछलगा' कहा है।

विधि पर इनकी पूरी आस्था थी। 'वेद, पुराण' और 'कुरान' आदि को ये लोककल्याणमार्ग प्रतिपादित करनेवाले वचन मानते थे। जो वेदप्रतिपादित मार्ग पर न चलकर मनमाने मार्ग पर चलते हैं उन्हें जायसी अच्छा नहीं समझते—

राघव पूज जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ।
वेदपंथ जे नहिं चलहिं, ते भूलहिं बन माँझ?

झूठ बोल थिर रहै न राँचा। पंडित सोइ वेदमत साँचा॥
वेद वचन मुख साँच जो कहा। सो जुग जुग थिर होइ रहा॥

आरंभ में ही कहा जा चुका है कि वल्लभाचार्य, रामानंद, चैतन्य महाप्रभु आदि के प्रभाव से जिस शांतिपूर्ण और अहिंसामय वैष्णव धर्म के प्रवाह ने सारे