बसरा और बगदाद बहुत दिनों तक सूफियों के प्रधान स्थान रहे। बसरे में 'राबिया' और बगदाद में 'मंसूर हल्लाज' प्रसिद्ध सूफी हुए हैं। मंसूर हल्लाज की पुस्तक 'किताबे तवासीफ' सूफियों का सिद्धांत ग्रंथ माना जाता है। अतः उसके अनुसार ईश्वर और सृष्टि के संबंध में सूफियों का सिद्धांत नीचे दिया जाता है—
परमात्मा की सत्ता का सार है प्रेम। सृष्टि के पूर्व परमात्मा का प्रेम निर्विशेष भाव से अपने ऊपर था इससे वह अपने को—अकेले अपने आपको ही—व्यक्त करता रहा। फिर अपने उस एकांत अद्वैत प्रेम को, उस अपरत्वरहित प्रेम को, बाह्य विषय के रूप में देखने की इच्छा से उस शून्य से अपना एक प्रतिरूप या प्रतिबिंब उत्पन्न किया जिसमें उसी के गुण और नामरूप थे। यही प्रतिरूप 'अमदा, कहलाया जिसमें और जिसके द्वारा परमात्मा ने अपने को व्यक्त किया—
आपुह आह चाह देखावा। आदम रूप भेस धरि आवा॥
हल्लाज ने ईश्वरत्व और मनुष्यत्व में कुछ भेद रखा है वह 'ब्रह्मैव भवति' तक नहीं पहुँचता है। साधना द्वारा ईश्वर की प्राप्ति हो जाने पर भी, ईश्वर की सत्ता में लीन हो जाने पर भी, कुछ विशिष्टता बनी रहती है। ईश्वरत्व (लाहूत) मनुष्यत्व (नासूत) में वैसे ही ओतप्रोत हो जाता है—बिल्कुल एक नहीं हो जाता—जैसे शराब में पानी। इसी से ईश्वरदशाप्राप्त मनुष्य कहने लगता है 'अनलहक'—मैं ही ईश्वर हूँ। ईश्वरत्व का इस प्रकार मनुष्यत्व में ओतप्रोत हो जाना हल हो जाना 'हुलूल' कहलाता है। इस हुलूल में अवतारवाद की झलक है, इससे मुल्लाओं ने इसका घोर विरोध किया। जो कुछ हो, हल्लाज ने यह प्रतिपादित किया कि अद्वैत परमसत्ता में भी भेदविधान है, उसमें भी विशिष्टता है, जैसे कि रामानुजाचार्य जी ने किया था।
इब्न अरबी ने 'लाहूत' और 'नासूत' की यह व्याख्या की है कि दोनों एक ही परमसत्ता के दो पक्ष हैं। लाहूत नासूत हो सकता है और नासूत लाहूत। इस प्रकार उसने ईश्वर और जीव दोनों के परे ब्रह्म को रखा और वेदांतियों के उस भेद पर आ पहुँचा जो वे ब्रह्म और ईश्वर अर्थात निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म में करते हैं। वेदांत में भी एक ही ब्रह्म शुद्ध सत्व में प्रतिबिंबित होने पर ईश्वर और अशुद्ध सत्व में प्रतिबिंबित होने पर जीव कहलाता है। परब्रह्म के नीचे एक और ज्योतिस्वरूप की भावना पश्चिम की पुरानी जातियों में भी थी—जैसे, प्राचीन मिस्रियों में 'लोगस' की, यहूदियों में 'कबाला' की और पारसियों में 'बहमन' की। ईसाइयों में भी 'पवित्रात्मा' के रूप में वह बना हुआ है।
सूफियों के एक प्रधान वर्ग का मत है कि नित्य पारमार्थिक सत्ता क ही है। यह अनेकत्व जो दिखाई पड़ता है वह उसी एक का ही भिन्न भिन्न रूपों में आभास है। यह नामरूपात्मक दृश्य जगत् उसी एक सत् की बाह्य अभिव्यक्ति है। परमात्मा का बोध इन्हीं नामों और गुणों के द्वारा हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखकर जायसी ने कहा—
दीन्ह रतन बिधि चारि, नैन, बैन, सरवन्न, मुख।
पुनि जब मेटिहि मारि, मुहमद तब पछिताब मैं॥
(अखरावट)