इस परम सत्ता के दो स्वरूप हैं—नित्यत्व और अनंतत्व; दो गुण हैं—जनकत्व और जन्यत्व। शुद्ध सत्ता में न तो नाम है, न गुण। जब वह निर्विशेषत्व या निर्गुणत्व से क्रम?: अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आती है तब उसपर नाम और गुण लगे प्रतीत होते हैं। इन्हीं नामरूपों और गुणों की समष्टि का नाम जगत् है। सत्ता और गुण दोनों मूल में लाकर एक ही हैं। दृश्य जगत् भ्रम नहीं है, उस परम सत्ता की आत्माभिव्यक्ति या अपर रूप में उसका अस्तित्व है। वेदांत की भाषा में वह ब्रह्म का ही 'कनिष्ठ स्वरूप' है। हल्लाज के मत की अपेक्षा यह मत वेदांत के अद्वैतवाद के अधिक निकट है।
सूफियों के मत का जो थोड़ा सा दिग्दर्शन ऊपर कराया गया उससे इस बात पर ध्यान गया होगा कि उनके अद्वैतवाद में दो बातें स्फुट नहीं है—(१) परम सत्ता चिरत्वरूप ही है, (२) जगत् अभ्यास मात्र है। पर जैसा कि पाठकों को पढ़ने ज्ञात होगा, जायसी सूफियों के अद्वैतवाद तक ही नहीं रहे हैं, वेदांत के अद्वैतवाद तक भी पहुँचे हैं। भारतीय मतमतांतरों की उनमें अधिक झलक है।
ज्ञानकांड के निर्गुण ब्रह्म को यदि उपासना क्षेत्र में ले जायँगे तो उसे सगुण करना ही पड़ेगा। जिन्होंने मूर्ति के निषेध को ठीक खुदा के पास तक पहुँचा देनेवाला रास्ता समझा था, वे भी उसकी देश-काल-संबंध-शून्य भावना नहीं कर सके थे। खुदा का कयामत के दिन एक जगह बैठना, चारों ओर सब जीवों का इकट्ठा होना, बगल में हजरत मुहम्मद या ईसा का होना, जड़ द्रव्य लेकर अपनी ही सूरत सकल का पुतला बनाना और उसमें रूह फूंकना, छह दिन काम करके सातवें दिन आराम करना, ये सब बातें अव्यक्त और निर्गुण की नहीं हैं। ज्ञानेंद्रिय-गोचर आकार के बिना चाहे किसी प्रकार काम चल भी जाय पर मन का गोचर गुणों के बिना तो किसी दशा में काम नहीं चल सकता। अतः मूर्त्तामूर्त सबको उस ब्रह्म का व्याक्ताव्यक्त रूप माननेवाले सूफी यदि उस ब्रह्म की भावना अनंत सौंदर्य और अनंत गुणों से संपन्न प्रियतम के रूप में करें तो उनके सिद्धांत में कोई विरोध नहीं आ सकता। उपनिषदों में भी उपासना के लिये ब्रह्म की सगुण भावना की गई है। सूफी लोग ब्रह्मानंद का वर्णन लौकिक प्रेमानंद के रूप में करते हैं और इस प्रसंग में शराब, मद आदि को भी लाते हैं।
प्रतीकोपासना (अग्नि, जल, वायु आदि के रूप में) और प्रतिमापूजन के प्रति जो घोर द्वेषभाव पैगंबरी मतों में फैला हुआ था वह सूफियों को उदार और व्यापक दृष्टि में अत्यंत अनुचित और घोर अज्ञानमूलक दिखाई पड़ा। उस कट्टरपन का शांत विरोध प्रकट करने के लिये वे कभी कभी अपने उपास्य प्रियतम की भावना 'बुत' (प्रतिमा) के रूप करते थे। जितना ही इस 'बुत' का विरोध किया गया उतना ही वह फारसी की शायरी में दखल जमाता गया। सूफी बराबर 'खुदा के नूर को हुस्ने बुताँ के परदे में' देखते रहे। सूफियों के प्राधान्य के कारण धीरे धीरे 'बुत' और 'गै' (शराब) दोनों शायरी के अंग हो गए। शायर लोग 'खुदा खुदा करना' और 'बुतों के आगे सिजदः करना' दोनों बराबर ही समझने लगे।[१]
- ↑ करूँ मैं सिजदः बुतों के आगे, तू ऐ बरहमन! 'खुदा, खुदा' कर।