पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१३३

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पदमावत में अद्वैतवाद की झलक स्थान स्थान पर दिखाई पड़ती है। अद्वैतवाद के अंतर्गत दो प्रकार के द्वैत का त्याग लिया जाता है—आत्मा और परमात्मा के द्वैत का तथा ब्रह्म और जड़ जगत् के द्वैत का। इनमें से सूफियों का जोर पहली बात पर ही समझना चाहिए। यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद् का 'अहं ब्रह्मास्मि' वाक्य जिस प्रकार ब्रह्म की एकता और अपरिच्छिन्नता का प्रतिपादन करता है उसी प्रकार सूफियों का 'अनहलक' वाक्य भी। इस अद्वैतवाद के मार्ग में बाधक होता है अहंकार। यह अहंकार यदि छूट जाय तो इस ज्ञान का उदय हो जाय कि 'सब मैं ही हूँ', मुझसे अलग कुछ नहीं है—

हौं हौं कहत सबै मति खोई। जौ तु नाहिं आहि सब कोई॥
आपुहि गुरु गुरु सो आपुहि चेला। आपुहिं सब औ आपु अकेला॥

'अखरावट' में जायसी ने 'सोऽहं' इस तत्व की अनुभूति से ही पूर्ण शांति की प्राप्ति बताई है—

'सोऽहं सोऽहं' बसि जो करई। सो बूझै, सो धीरज धरई॥

वेदांत का अनुसरण करते हुए जायसी ब्रह्म और जगत् की समस्या पर भी जाते हैं और जगत् को ब्रह्म से अलग नहीं करते। जगत् की जो अलग सत्ता प्रतीत होती है, वह पारमार्थिक नहीं है, अवभास या छाया मात्र है—

जब चीन्हा तब और न कोई। तन मन, जिउ, जीवन सब सोई॥
'हौं हौं' कहत धोख इतराहीं। जब भा सिद्ध कहाँ परछाहीं?

चित् अचित् की इस अनन्यता के प्रतिपादन के लिये वेदांत 'विवर्तवाद' का आश्रय लेता है जिसके अनुसार यह जगत् ब्रह्म का विवर्त (कल्पित कार्य) है। मूल सत्य द्रव्य ब्रह्म ही है जिसपर अनेक असत्य अर्थात् सदा बदलते रहनेवाले दृश्यों का अध्यारोप होता है। जो नामरूपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तव स्वरूप ही है, न ब्रह्म का कार्य या परिणाम ही है। वह है केवल अध्यास या भ्रांतिज्ञान। उसकी कोई अलग सत्ता नहीं है। नित्य तत्व एक ब्रह्म ही है। इसी सामान्य सिद्धांत के स्पष्टीकरण के लिये वेदांत में प्रतिबिंबवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, अवच्छेदवाद, अजातवाद (प्रौढ़वाद) आदि कई वाद चलते हैं।

'प्रतिबिंबवाद' का तात्पर्य यह है कि नामरूपात्मक दृश्य (जगत्) ब्रह्म के प्रतिबिंब हैं। बिंब ब्रह्म है; यह जगत् उसका प्रतिबिंब है। इस प्रतिबिंबवाद की ओर जायसी ने 'पदमावत' में बड़े ही अनूठे ढंग से संकेत किया है। दर्पण में पद्मिनी के रूप की झलक देख अलाउद्दीन कहता है—

देख एक कौतुक हौं रहा। रहा अँतरपट पै नहिं अहा॥
सरवर देख एक मैं सोई। रहा पानि औ पान न होई॥
सरग आइ धरती महँ छावा। रहा धरति, पै धरत न आवा॥