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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१४०

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आदि मुसलमानी देशों के जनसाधारण की भावना भी बहुत स्थूल थे। वे उसे नक्षत्रों से जुड़ा हुआ एक शामियाना समझते थे, इसी से जायसी ने कहा है—

गगन अंतरिख राखा, बाज खंभ बिनु टेक।

'अखरावट' में उपनिषद् की कुछ बातें कहीं कहीं ज्यों की त्यों मिलती हैं। आत्मा के संबंध में जायसी कहते हैं—

पवन चाहि मन बहुत उताइल। तेहि तें परम आसु सुठि पाइल॥
मन एक खंड न पहुँच पावै। आसु भुवन चौदह फिरि आवै॥

पवनहिं महँ जो आसमाना। सब भा बरन जो आपु माना॥
जैत डोलाए बेना डोलै। पवन सबद होइ किछुह न बोलै॥

यही बात ईशोपनिषद् में कही गई है—

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवाऽऽप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्भावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥४॥

अर्थात्—आत्मा अचल मन से अधिक वेगवाला है, इंद्रियाँ उसको नहीं पा सकतीं। वह मन, इंद्रिय आदि दौड़नेवालों से ठहरा हुआ भी, परे निकल जाता है और उसी की सत्ता से वायु में कर्मशक्ति है।

सारांश यह है कि अद्वैतपक्ष मान्य होने पर भी जायसी ने अन्य पक्षों की भावना द्वारा उद्घाटित स्वरूपों का भी पूरे औत्सुक्य के साथ अवलोकन किया है। सूक्ष्म और स्थल दोनों प्रकार के विचारों का समावेश उनमें है। जगह जगह उन्होंने संसार को असत्य और माया कहा है जिससे मूल पारमार्थिक सत्ता का केवल आत्मस्वरूप होना ध्वनित होता है। साथ ही, जगत् को दर्पण कहना, नामरूपात्मक दृश्यों को प्रतिबिंव या छाया कहना यह सूचित करता है कि अचित् को ब्रह्म तो नहीं कह सकते, पर है वह उसी रूप की छाया जिस रूप में यह जगत् दिखाई पड़ता है। दूसरी ओर ईश्वर की भावना कर्ता या केवल निमित्त कारण के रूप में भी सृष्टिवर्णन में उन्होंने की है। यहीं तक नहीं, कहीं कहीं उन्होंने हिंदू और मुसलिम भावना का मेल भी एक नए और अनूठे ढंग से किया है।

इस प्रकार के परस्पर भिन्न सिद्धांतों की झलक से यह लक्षित होता है कि उन्होंने जो कुछ कहा है वह उनके तर्क या 'ब्रह्मजिज्ञासा' का फल नहीं है, उनकी सारग्राहिणी और उदार भावुकता का फल है, उनके अनन्यप्रेम का फल है। इसी प्रेमाभिलाष की प्रेरणा से प्रेमी भक्त उस अखंड रूपज्योति की किसी न किसी कला के दर्शन के लिये सृष्टि का कोना कोना झाँकता है, प्रत्येक मत और सिद्धांत की ओर आँख उठाता है और सर्वत्र जिधर देखता है उधर उसका कुछ न कुछ आभास पाता है। यही उदार प्रवृत्ति सब सच्चे भक्तों की रही है। जायसी की उपासना 'माधुर्य भाव' से, प्रेमी और प्रिय के भाव से है। उनका प्रियतम संसार के परदे के भीतर छिता हुआ है। जहाँ जिस रूप में उसका आभास कोई दिखाता है वहाँ उसी रूप में उसे देख ये गद्गद होते हैं। वे उसे पूर्णतया ज्ञेय या प्रमेय नहीं मानते। उन्हें यही दिखाई पड़ता है कि प्रत्येक मत अपनी पहुँच के अनुसार, अपने मार्ग