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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१४८

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भावार्थ—निर्जन स्थानों के मर्मर करते हुए काननों में, झरनों में, उन पुष्पों की परागगंध में जो उस दिव्य चुंबन के सुखस्पर्श से सोए हुए कुछ बर्राते से मुग्ध पवन को उसका परिचय दे रहे हैं। इसी प्रकार मंद या तीव्र समीर में, प्रत्येक दौड़ते मेघखंड की झड़ी में, बसंत के विहंगमों के कलकूजन में तथा प्रत्येक ध्वनि में और निःस्तब्धता में भी मैं उसी की वाणी सुनता हूँ।

कबीरदास में यह बात नहीं है। उन्हें बाहर जगत् में भगवान् की रूपकला नहीं दिखाई देती। वे सिद्धों और योगियों के अनुकरण पर ईश्वर को केवल अंतस् में, बताते हैं—

मो को कहाँ ढूंढ़ै बंदे मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल, ना मैं मसजिद; ना काबे कैलास में॥

जायसी भी उसे भीतर बताते हैं—

पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई!

पर, जैसा कि पहले दिखा चुके हैं, वे उसके रूप की छटा प्रकृति के नाना रूपों में भी देखते हैं।

मानस के भीतर उस प्रियतम के सामीप्य से उत्पन्न कैसे अपरमित आनंद की, कैसे विश्वव्यापी आनंद की, व्यंजना जायसी की इन पंक्तियों में है—

देखि मानसर रूप सोहावा। हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥
गा अँधियार रैन मसि छूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥
कँवल बिगस तस बिहँसी देही। भँवर दसन होइ कै रस लेहीं॥

देखि अर्थात् उस अखंड ज्योति का आभास पाकर वह मानस (मानसरोवर और हृदय) जगमगा उठा। देखिए न, खिले कमल के रूप में उल्लास मानसर में चारों ओर फैला है। उस ज्योति के साक्षात्कार से अज्ञान छूट गया—प्रभात हुआ, पृथ्वी पर से अंधकार हट गया। आनंद से चेहरा (देही = बदन = मुँह) खिल उंठा, बत्तीसी, निकल आई[]—कमल खिल उठे और उनपर भौंरे दिखाई दे रहे हैं। अंतर्जगत् और बाह्य जगत् का कैसा अपूर्व सामंजस्य है, कैसी बिंबप्रतिबिब स्थिति है!

उस प्रियतम पुरुष के प्रेम से प्रकृति कैसी विद्ध दिखाई देती है—

उन्ह बानन्ह अस को जोन मारा? बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाहिं न गने। वै सब बान ओहि के हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुस तन ठाढ़े। सूर्ताह सूत बेध अस गाढ़े॥


  1. एक स्थान पर जायसी ने कहा है—'मसि बिनु दसन सोह नहि देहीं।' लखनऊ में मर्द लोग भी मिस्सी से दाँत काले करते हैं। पान के रंग से भी दाँतों पर स्याही चढ़ जाती है।