पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१८३

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पदमावत

(१) स्तुतिखंड

सुमिरौं आदि एक करतारू। जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू॥
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू। कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा। कीन्हेसि बहुतै, रंग उरेहा॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू। कीन्हेसि बरन बरन औतारू॥
कीन्सेसि दिन, दिनचर, ससि, राती। कीन्हेसि नखत, तराइन पाँती॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा। कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहि माँहा॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा। कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा॥

कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि॥१॥

कीन्हेसि सात समुंद अपारा। कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा॥
कीन्हेसि नदी, नार औ झरना। कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना॥
कीन्हेसि सीप, मोति जेहि भरे। कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे॥
कीन्हेसि वनखँड औ जरि मूरी। कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं। कीन्हेसि पंखि उड़हि जहँ चहईं॥
कीन्हेसि बरन सेत औ स्यामा। कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भोगू। कीन्हेसि बहु ओपद, बहु रोगू॥

निमिख न लाग करत ओहि, सबै कीन्ह पल एक।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक॥२॥

कीन्हेसि अगर कसतुरी वेना। कीन्हेसि भीमसेन ओ चीना॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा। कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा॥
कीन्हेसि अमृत, जियै जो पाए। कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी। कीन्हेसि करू बेल बहु फरी॥
कीन्हेसि मधु लावै लै साखी। कीन्हेसि भौंर पखि औ पाँखी॥
कीन्हेसि लोवा इंदुर चाँटी। कीन्हेसि बहुत रहहिं खनिमाटी॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता। कीन्हेसि भोकस देव दएत॥


(१) ऊरेहा = चित्रकारी। सीऊ = शीत। कीन्हेसि···कैलासु = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की (कुरान की आयत)। कैलास = स्वर्ग, बिहिश्त। इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है। (२) खिखिंद = किष्किंधा। निरमरे = निर्मल। साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है। आरन = अरण्य।

(२) बाज = बिना (सं॰ वर्ज्य)। जैसे, दीन दुख दारिद दलै को कृपा- बारिधि बाज?—तुलसी। (३) बेना = खत। भीमसेन, चीना = कपूर