पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१८४

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पदमावत

कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि।
भुगुति दिहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि॥३॥

कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बड़ाई। कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहि पाई॥
कीन्हसि राजा भूंजहि राजू। कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई। कीन्हेसि लोभ, अघाई न कोई॥
कीन्हेसि जियन, सदा सब चहा। कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा है॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू। कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोई धनी। कीन्हे सँपति विपति पुनि घनी॥

कीन्हेसि कोइ निभरोसी, कीन्हेसि को बरियार।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छर॥४॥

धनपति उहै जेहिक संसारू। सबैं देइ निति, घट न भंडारू॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा। सब कहँ भुगुति रात दिन बाँटा॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं। मित्र सत्रु कोई बिसरै नाहीं॥
पंखि पतंग न बिसरे कोई। परगट गुपुत जहाँ लगि होई॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई। सबै खवाइ, आप नहिं खाई॥
ताकर उहैं जो खाना पियना। सब कह देइ भुगुति औ जियना॥
सबै आासहर ताकर आसा। वह न काहु के आस निरासा॥

जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह।
और जो दीन्ह जगत महें सो सब ताकर दीन्ह॥५॥

आदि एक बरनौं सोइ राजा। आदि न अंत राज जेहि छाजा॥
सदा सरबदा राज करेई। औ जेहिं चहै राज तेहि देई॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहि छावा। दूसर नाहिं जो सरवरि पावा॥
परबत ढाह देख सब लोगू। चाँटहि करै हस्ति सरि-जोगू॥
वज्रहिं तिनकहिं मारि उड़ाई। तिनहि वज्र करि देइ बड़ाई॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई। करें सोइ जो चित्त न होई॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा। काहू बहुत भूख दुख मारा॥

सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर।
एक साजै औ भाँजै, चहै सँवारै फेर॥६॥


के भेद। लोबा = लोमड़ी। इंदुर = चूहा। चाँटी = चींटी। भोकस = दानव। सहस अठारह = अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलामी किताबों के अनुसार)। (४) भूंजहिं = भोगते हैं। बरियार = बलवान। (५) उपाई = उत्पन की। आासहर = निराशा।

(६) भाँजे = भंजन करता है, नष्ट करता है।