सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
स्तुति खंड

अलख अरूप अवरन परन सो कर्ता। वह सब सों, सब ओहि सो बर्ता॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपि। धरमी चीन्ह न चीन्है पापी॥
ना हि पूत न पिता न माता। ना ओहि कुटुँब न कोइ सँग नाता॥
जना न काहु, न कोई ओहि जना। जहँ लगि सब ताकर सिरजना॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई। वह नहिं कीन्ह काहु कर होई॥
हुत पहिले अरु अब है सोई। पुनि सो रहै रहै हैहिं कोई॥
और जो होइ सो बाउर अंधा। दिन दुइ चारि मरै करि धंधा॥

जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह॥७॥

एहि विधि चीन्हहु कर गियानू। जस पुरान महँ लिखा बखानू॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं। कर नाहीं, पर कै सबाईं॥
जीभ नाहिं पै सब किछु बोला। तन नाहीं, सब ठाहर डोला॥
स्रवन नाहिं पै सब किछु सुना| हिया नाहिं पै सब किछु गुना॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा। कौन भाँति अस जाइ बिसेखा॥
है नाहीं कोई ताकर रूपा। ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊ। रूप रेख बिनु निरमल नाऊ॥

ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि॥८॥

और जो दीन्हेसि रतन अमोला। ताकर मरम न जानै भोला॥
दीन्हेसि रसना औ रस भोगू। दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू॥
दीन्हेसि जग देखन कहूँ नैना। दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ। दीन्हेसि कर पल्लौ बर बाँहा॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं। सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं॥
जोवन मरम जान पै बूढ़ा। मिला न तरुनापा जग ढूँढ़ा॥
दुख कर मरम न जानै राजा। दुखी जान जापर दुख बाजा॥

काया मरम जान पै रोगी, भोगी रहैं निचिंत।
सब कर मरम गोसाई (जान) जो घट घट रहै निंत॥९॥

अति कपार करता कर करना। बरनि न कोई पावै बरना॥
सात सरग जौ कागद करई। धरती समुद दुहुँ मसि भरई॥
जावत जग साखा बनढाखा। जावत केस रोंव पँखि पाँखा॥
जावत खेह रेह दुनियाई। मेघबूँद औ गगन तराई॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा। लिखि न जाइ गति समुद अपारा॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा। अबहुँ समुद्र महँ बूँद न घटा॥
ऐस जानि मत गरब न होई। गरब करे मन बाउर सोई॥


(७) सिरजना = रचना। (८) बेहरा अलग (बिहरना फटना)। (९) बाजा = पड़ा है। (१०) खेह = धूल, मिट्टी। रेह = राख, क्षार।