रसना कहौं जो कह रस बाता। अमृत बैन मन सुनत राता॥
हरै सो सुर चातक कोकिला। बिनु बसंत यह बैन न मिला॥
चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं। सुनि वह बैन लाज छपि जाहीं॥
भरे प्रेमरस बोलै बोला। सुनै सो माति घूमि के डोला॥
चतुतवेद मत सब ओहि पाहाँ। रिग, जजु, साम, अथरवन साहाँ॥
एक एक बोल अरथ चौगुना। इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना॥
अमर, भागवत, पिंगल गीता। अरथ बूझि पंडित नहिं जीता॥
भासवती औ व्याकरन, पिंगल पढ़ै पुरान।
बेद भेद सौं बान कह, सृजनन्ह लागै बान॥१०॥
पुनि बरनौं का सुरँग कपोला। एक नारँग दुइ किए अमोला॥
पुहुप पंक रस अमृत साँधे। केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे?॥
तेहिं कपोल बाएँ तिल परा। जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा॥
जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं। बिरह बान साधे सामुहीं॥
अगिनि बान जानों तिल सूझा। एक कटाछ लाख दस सूझा॥
सो तिल गाल मेटि नहिं गएऊ। अब वह गाल काल जग भएऊ॥
देखत नैन परी परिछाहीं। तेहि तें रात साम उपराहीं॥
सो तिल देखि कपोल पर, गगन रहा ध्रुव गाड़ि।
खिनहिं उठै खिन बूड़ै, डोलै नहिं तिल छाँड़ि॥११॥
स्रवन सीप दृढ़ दीप सँवारे। कुंडल कनक रचे उजियारे॥
मनि कुंडल झलकैं अति लीने। जनु कौंधा लौकहिं दुइ कोने॥
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं॥
तेहि पर खूँट दीप दुइ वारे। दुइ ध्रुव दुऔ खूँट बैसारे॥
पहिरे खुंभी सिंघलदीपी। जनौ भरी कचपचिआ सीपी॥
खन खिन जबहिं कीर सिर गहे। काँपति बीज दुऔ बिसि रहै॥
डरपहिं देवलोक सिंघला। परै न बीजु टूटि ए क कला॥
करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ।
चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ?॥१२॥
धार = घड़ी, रेखा। चौक = आगे के चार दाँत। पाहन = पत्थर, हीरा। झरक्कि उठे = झलक गए। अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए। (१०) अमर = अमरकोश। भासवती = भास्वती नामक ज्योतिष का ग्रंथ। सुजनन्ह = सुजानों या चतुरों चो।) (११) साँवे = साने, गूंधे। खुरौरा = खाँड़ के लड्डू। खँड़ौरा। घुँघुची = गुजा। करमुँहा = काले मुँहवाला। (१२) लौकहि = चमकती है, दिखाई पड़ती है। खूँट = कान का एक गहना। खूँट = कोने। खुंभी = कान का एक गहना। कपचिया = कृत्तिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक में गुच्छ दिखाई पड़ते हैं। गोहने = साथ में, सेवा में। (१३) कंबु = शंख।