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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२२३

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४१
नखशिख खंड

बरनौं गीउ कंबु कै रीसी। कंचन ताल लागि जनु सीसी॥
कुंदै फेरि जानु गिउ काढ़ी। हरी पुछार ठगी जनु ठाढ़ी॥
जनु हिय बाढ़ि परेवा टाढ़ा। तेहि तैं अधिक भाव गिउ बाढ़ा॥
चाक चढ़ाइ साँच जनु कीन्हा। बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा॥
गए मयूर तमचूर जो हारे। उहै पुकारहिं साँझ सकारे॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा। घूँट जो पीक लीक सब देखा॥
धनि ओहि गीउ दीन्ह विधि भाउ। दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ॥

कंठसिरी मुकुतावली, सोहै आाभरन गीउ।
लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ॥१३॥

कनक दंढ़ दुइ भुजा कलाई। जानौं फेरि कुँदेरै भाई॥
कदलि गाभ के जानौ जोरी। औ राती ओहि कँबल हथोरी॥
जानो रकत हथोरी बूड़ी। रवि परभात तात, वै जूड़ी॥
हिया काड़ि जनु कीन्हेसि हाथा। रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा॥
औ पहिरे नग जरी अँगूठी। जग बिनु जीउ, जीउ ओहि मूठी॥
बाहूँ कंगन, टाड़ सलोनी। डोलत बाँह भाव गति लोनी॥
जानौ गति बेड़िन देखराई। बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई॥

भुज उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत।
ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ नित॥१४॥

हिया थार, कुच कंचन लारू। कनक कचोर उठे जनु चारू॥
कुंदन बेल साजि जनु कूँदे। अमृत रतन मोन दुइ मूँदे॥
बेधे भौंर कंट केतकी। चाहहिं बेध कीन्ह कंचुकी॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा। चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा॥
अगिनिं बान दुइ जानौं साधे। जग बेधहिं जौं होहि न बाँधे॥
उतँग जँभीर होइ रखवारी। छुइ को सक राजा कै बारी॥
दारिउँ दाख फरे अनचाखे। अस नारँग दहुँ का कहँ राखे॥

राजा बहुत मुए तपि, लाइ लाइ भुँइ माथ।
काहू छुवै न पाए, गए मरोरत हाथ॥१५॥


दिखाई पड़ते हैं। गोहने साथ में, सेवा में। (१३) कंबु = शंख। रीसी। ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली) अथवा केरीसी कैसी, जैसी; समान (प्रा॰ केरिसी) = कुंदै = खराद। पुछार = मोर। साँच = साँचा। (१४) भाई = फिराई हुई, खराद पर घुमाई हुई। गाभ = नरम कल्ला। हथोरी = हथेली। तात = गरम। टाड़ = बाँह पर पहनने का एक गहना। बेड़िन = नाचने गानेवाली एक जाति। पौनार = पद्मनाल (प्रा॰ पउम नाल), कमल का डंठल। ठाँवहिं ठाँव...निंद = कमल नाल में काँटे से होते हैं और वह सदा पानी के ऊपर उठा रहता है। (१५) कचोर = कटोरे। कूँदे = खरादे हुए। मोन = (सं॰ मोण) मोना, पिटारा,