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सात समुद्र खंड


आए उदधि समुद्र अपारा। धरती सरग जरै तेहि भारा॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा। लंका जरी ओहि एक बुंदा॥
विरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा। खिन न बुझाइ जगत महें बाढ़ा॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी। सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी॥
जग महँ कठिन खड़ग कै धारा। तेहि तें अधिक विरह के भारा॥
अगम पंथ जो ऐस न होई। साथ किए पावै सब कोई॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा। जरा चहे पे रोव न जरा॥

तलफै तेल कराह जिमि इमि, तलफै सब नीर।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर वेधा, समुद समीर॥४॥

सुरा समुद पुनि राजा आवा। महुआ मद छाता दिखरावा॥
जो तेहि पिये सो भाँवरि लेई। सीस फिरै, पथ पैगू न दई॥
पेम सुरा जेहि के हिय माहाँ। कित बैठे महुआ के छाहाँ॥
गुरू के पास दाख रस रसा। बैरी बबुर मारि मन कसा॥
बिरह के दगध कीन्ह तन भाठी। हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी॥
नैन नीर सौं पोता किया। तस मद चुवा बरा जस दिया॥
बिरह सरागन्हि भुँजै माँसू। गिरि गिरि परै रकत के आँसू॥

मुहमद मद जो पेम कर, गए दीप तेहि साध।
सीस न देइ पतंग होइ, तौ लगि लहे न खाप॥५॥

पुनि किलकिला समुद महँ आए। गा धीरज, देखत डर खाए॥
भा किलकिल अस उठे हिलोरा। जनु अकास टूटै चहूँ ओरा॥
उठै लहरि परवत कै नाई। फिरि आवै जोजन सौं ताई॥
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा। सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा॥
नीर होइ तर ऊपर सोई। माथे रंभ समुद जस हाई॥
फिरत समद जोजन सौ ताका। जैसे भँवै कोहाँर क चाका॥
भै परलै नियराना जबहीं। मरै जो जब परलै तेहि तबहीं॥

गै औसान सबन्ह कर, देखि समुद कै बाढ़ि।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि॥६॥

 

(४) भार = ज्वाला, लपट। उपनी = उत्पन्न हुई। आगि कह डीठी = आग की क्या ध्यान में लाता है। सौंह = सामने। यह जो मलयगिरि = अर्थात्‌ राजा। (५) छाता = पानी पर फैला फूल पत्ती का गुच्छा। सीस फिरै = सिर घुमता है। मन कसा = मन वश में किया। काठी = इंधन। पोती = मिट्टी के लेप कर गाल कपड़े का पुचारा जो भवके से अर्क उतारने में बरतन के उपर दिया जाता हैं। सराग = सलाख, शलाका, सीख जिसमें गोदकर माँस भूनते हैं। खाध = खाद्य, भोग।

(६) धरती लेइ = धरती से लेकर। माथे = मथने से। रंभ = घोर शब्द। औसान = होश हवास।