(१८) पदमावती-वियोग-खंड
पदमावति तेहि जोग सँजोगा। परी पेम वस गहें वियोगा॥
नींद न परे रैनि जौं आवा। सेज केंवाच जानू कोइ लावा॥
दहै चंद औ चंदन चोरू। दगध करें तन बिरह गँभोरू॥
कलप समान रैनि तेहि वाढ़ी। तिल तिल भर जुग जुग जिमि गाढ़ी॥
गहै बीत मकु रैनि विहाई। ससि बाहन तह रहै ओनाई॥
पुनि धनि सिंघ उरेहे लागे। ऐसिहि विथा रैनि सब जागे॥
कहूँ वह भौंर कर्वेंल रस लेवा॥ आइ परै होइ घिरनि परेवा॥
से धनि बिरह पतंग भइ, जरा चहै तेहि दीप।
कंत न माव भरिंग होइ, का चंदन तन लीप?॥१॥
परी बिरह बन ज़ानहूँ घेरी। अगम असुझ जहाँ लगि हेरी॥
चतुर दिसा चितवै जनु भूली। सों बन कहँ जहँ मालति फूली?॥
कँवल भौंर ओहो बन पावे। को मिलाइ तन तपनि बुझावै?॥
अंग अंग अस कँवल सरीरा। हिय भा पियर कहै पर पीरा॥
चहै दरस, रबि कीन्ह बिगासू। भौंर दीठि मनो लागि अकासू॥
पूंछै धाय, बारि! कहु बाता। तुईं जस कँवल फूल रँग राता॥
केसर बरन हिया भा तोरा। मानहूँ मनहिं भएउ किछु मोरा॥
पौन न पावै संचर, भौर न तहाँ बईठ।
भूलि कुरंगिनि कस भई, जानू सिंघ तुईं डीठ॥२॥
धाय! सिघ बरु खातेउ मारी। की तसि रहति अही जसि बारी॥
जोबन सुनेउँ की नवल बसंतू। तेहि बन परेउ हस्ति मैमंतू॥
(१) तेहि जोग सँजोगा = राजा के उस योग के संयोग या प्रभाव से। केंवाच = कपिकच्छु जिसके छू जाने से बदन में खुजली होती है। गहै बीन ओनाई = बीन लेकर बैठती है कि कदाचित् इसी से रात बीते, पर उस बीन के सुर पर मोहित होकर चंद्रमा का वाहन मृग ठहर जाता है जिससे रात और बड़ी हो जाती है। सिंध उरेहे लागै = सिंह का चित्र बनाने लगती है जिससे चंद्रमा का मुग डरकर भागे। घिरिनि परेवा = गिरहबाज कबूतर। धनि = धन्या, स्त्री। कंत न आव भिरिंग होइ = पति रूप भृंग आकर जब मुझे अपने रंग में मिला लेगा तभी जलने से बच सकती हूँ। लोप = लेप करतो हो। (२) हिय भा पियर = कमल के भीतर का छत्ता पीले रंग का होता है। पर पीरा = दूसरे का दुःख या वियोग। भौंर दीठिमनो लागि अकासू = कमल पर जैसे भौरे होते हैं वैसे हो कमल सी पद्मावती की काली पुतलियाँ उस सूर्य का विकास देखने को आकाश की ओर लगी हैं। भोरा = भ्रम।