सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७२
पदमावत


फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। झुंड बाँधि के पंचम गाई॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी। मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी॥
सिंगि, संख, डफ बाजन बाजे। बंसी, महुअर सुर सँग साजे॥
और कहिय जो बाजन भले। भाँति भाँति सब बाजत चले॥
रथहिं चढ़ी सब रूप सोहाई। लेइ बसंत मठ मँडप सिधाई॥
नवल बसंत, नवल सब बारी। सेंदुर बुक्का होइ धमारी॥
खिनहिं चलहिं, खिन चाँचरि होई। नाच कूद भूला सब कोई॥
सेंदुर खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात॥ ७ ॥
एहि बिधि खेलति सिंघलरानी। महादेव मढ़ जाइ तुलानी॥
सकल देवता देखै लागे। दिस्टि पाप सब ततछन भागे॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी। की कहुँ तें आईं परमेसरी॥
कोई कहै पदमिनी आई। कोइ कहै ससि नखत तराईं॥
कोइ कहै फूली फुलवारी। फूल ऐसि देखहु सब बारी॥
एक सुरूप औ सुंदरि सारि। जानहु दिया सकल महि बारी॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै। जानहु मिरिग दियारहि मोहै॥
कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु पाँच।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप॥ ८ ॥
पदमावति गै देव दुबारा। भीतर मँडप कीन्ह पैसारा॥
देवहि संसै भा जिउ केरा। भागौं केहि दिसि मंडप घेरा॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा। तिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा॥
फल फूलन्ह सब मंडप भरावा। चंदन अगर देव नहवावा॥
लेइ सेंदूर आगे भै खरी। परसि देव पुनि पायन्ह परी॥
'और सहेली सबै बियाहीं। मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा। गुनि निरगुनि दाता तुम देवा॥
बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढ़ावहुँ आनि॥ ९ ॥
हींछि हींछि बिनवा जस बानी। पुनि कर जोरि ठाढ़ि भड़ रानी॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ। सबद अकूत मँडप महँ भएउ॥
काटि पवारा जैस परेवा। सोएउ ईस, और को देवा॥


(७) पंचम = पंचम स्वर में। मादर = मर्दल एक प्रकार का मृदंग। (८) जाइ तुलानी = जा पहुँची। दियारा = लुक जो गीले कछारों में दिखाई पड़ता है; अथवा मृगतृष्णा।

चाँप = चंपा, चंपे की महक भौरा नहीं सह सकता। (९) एक...दूजा = दो बार प्रणाम किया। (१०) हींछि= इच्छा करके। अकूत = परोक्ष, आाकाश-