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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२५६

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पदमावत


घरी आइ तब गा तूँ सोई। कैसे भुगुति परापति होई॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता। आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही। इहै ठाँव हौं बारति रही॥
परगट होहुँ त होइ अस भंगू। जगत दिया कर होइ पतंगू॥
जा सहुँ हौं चख हेरौं सोई ठाँव जिउ देइ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ? ॥ १३ ॥
कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका। परबत छाड़ि सिंघलगढ़ ताका॥
बलि भए सबै देवता बली। हत्यारिन हत्या लेइ चली॥
को अस हितू मुए गह बाहीं। जौं पै जिउ अपने घट नाहीं॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई। बिनु जिउ कोइ न आपन होई॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा। बिनु जिउ घरी न राखै पारा॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा। छार मिलावै सो हित पूरा॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा। को उठि बैठि गरब सौं गाजा॥
परी कया भुइँ लोटै, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीउ॥ १४ ॥
पदमावति सो मँदिर पईठी। हँसत सिंघासन जाइ बईठी॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी। भा बिहान कह सखी हँकारी॥
देव पूजि जस आइउँ काली। सपन एक निसि देखिउँ, आली॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा। औ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा। चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा॥
दिन औ राति भए जनु एका। राम आइ रावन गढ़ छेंका॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा। अरजुन बान राहु गा बेधा॥
जनहुँ लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कछु सपन बिचारि॥ १५ ॥
सखी सो बोली सपन बिचारू। काल्हि जो गइहु देव के बारू॥
पूजि मनाइहु बहुतै भाँती। परसन आइ भए तुम्ह राती॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी। अस वर दैउ मेरावै, आनी॥
पच्छिउँ खँड कर राजा कोई। सो आवा बर तुम्ह कहँ होई॥



ठाँव = अवसर मौका। बारति रही = बचाती रही। भगूं = रंग में भंग, उप- द्रव। (१४) ताका = उस ओर बढ़ा। मरि भा = मर गया, मर चुका। बलि भोउँ = बलि और भोम कहलानेवाले। बाज बिना, बगैर, छोड़कर। (१५) बिहार = बिहार या सैर को। मेरावा = मिलन। निखेधा = वह ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है। राहु = रोहू मछली। राहु गा बेधा = मत्स्यबेध हुआ।