(२१) राजा रत्नसेन सती खंड
कै बसंत पदमावति गई। राजहि तब बसंत सुधि भई॥
जो जागा न बसंत न बारी। ना वह खेल, न खेलनहारी॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई। गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी। दीठि परी उकठी सब बारी॥
केइ यह बसंत बसंत उजारा? । गा सो चाँद, अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा अंधकूपा। वह सुख छाँह,जरौं दुख धूपा॥
बिरह दवा को जरत सिरावा? । को पीतम सौं करै गेरावा? ॥
हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछोव।
हाथ मोंजि सिर धुनि कै रोवै जो निचिंत अस सोव॥ १ ॥
जस बिछोह जल मीन दुहेला। जल हुँत काढ़ि अगिनि मँह मेला॥
चंदन आँक दाग हिय परे। बुझहिं न ते आखर परजरे॥
जनु सर आगि होइ हिय लागे। सब तन दागि सिंघ बन दागे॥
जरहिं मिरिग बनखँड तेहि ज्वाला। औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला॥
कित ते आँक लिखे जौं सोवा। मकु आँकन्ह तेई करत बिछोवा।।
जैस दुसंतहि साकुंतला। मधवानलहि कामकंदला॥
भा बिछोह जस नलहि दमावति। मैना मूँदि छपी पदमावति॥
आइ बसंत जो छपि रहा होइ फूलन्ह के भेस।
केहि बिधि पावौं भौंर होइ, कौन गुरू उपदेस॥ २ ॥
रोवै रतनमाल जनु चूरा। जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा॥
कहाँ बसंत औ कोकिल बैना। कहाँ कुसुम अति बेधा नेैना॥
कहाँ सो मूरति परो जो डीठी। काढ़ि लिहेसि जिउ हिये पईठी॥
(१) उकठी = सूखकर ऐंठी हुई। अथवा = अस्त हुआ। खेवरा = खौरा हुआ, चित्रित किया या लगाया हुआ। (२) हुँत = से। परजरे = जलते रहे। सर आगि = अग्निबाण। सब...दागे = मानों उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और वन में आग लगा करती है। कितते आँक सोवा = जब सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जब जीव अज्ञान दशा में गर्भ में रहता है तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है। दमावति = दमयंती।