कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा? । जौं सुबसंत करीलहि काहा? ॥
पात बिछोह रूख जो फूला। सो महुआ रोवै अस भूला॥
टपकैं महुअ आँसु तस परहीं। होइ महुआ बसंत ज्यों झरहीं॥
मोर बसंत सो पदमिनि बारी। जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी॥
पावा नवल बसंत पुनि बहु आरति बहु चोप।
ऐस न जाना अंत ही पात झरहिं, होइ कोप॥ ३ ॥
अरे मलिछ बिसवासी देवा। कित मैं आइ कीन्ह तोरि सेवा॥
आपनि नाव चढ़ै जो देई। सो तौ पार उतारै खेई॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा। सुआ क सेंवर तू भा मोरा॥
पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा। सो ऐसे बूड़ै मझधारा॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा? । जनम न ओद होइ जो भीजा॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा। सकत को भार लेइ सिर दूजा॥
काहे नहिं जिय सोइ निरासा। मुए जियत मन जाकरि आसा॥
सिंघ तरेंदा जेइ गहा पार भए तेहि साथ।
ते पै बूडे़ बाउरे भेड़ पूँछि जिन्ह हाथ॥ ४ ॥
देव कहा सुनु, बउरे राजा। देवहि अगुमन मारा गाजा॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई। सो का काहुक धरहरि करई[१]॥
पदमावति राजा कै बारी। आइ सखिन्ह सह बदन उघारी॥
जैस चाँद गोहने सब तारा। परेउँ भुलाइ देखि उजियारा॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई। नैन चक्र जमकात भवाँई॥
हौं तेहि दीप पतँग होइ परा। जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धरा॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई। दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई॥
अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस।
रोगिया की को चालै, बैदहि जहाँ उपास? ॥ ५ ॥
आनहिं. दोस देहुँ का काहू। संगी कया, मया नहिं ताहू॥
हता पियारा मीत बिछोई। साथ न लाग आपु गै सोई॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी। दूषन मोहिं, आप निरदोषी॥
फागु बसंत खेलि गइ गोरी। मोहि तन लाइ बिरह कै होरी॥
(३) कहाँ सो देस...लाहा? = बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील के वन में बसंत के जाने ही से क्या? आरति = दुःख। चोप = चाह। (४)ओद = गोला, आर्द्र। तरेंरा = तैरनेवाला काठ, बेड़ा। (५) गाजा = गाज, वज्र। धरहरि = धर पकड़, बचाव। गोहने = साथ या सेवा में। अपसई = गायब हो गई। निसाँसी = बेदम। को चालै = कौन चलावे।
- ↑ कुछ प्रतियों में यह पाठ है — ‘जबहिं आगि अपने सिर लागी। आन
बुझावै कहाँ सो आगी।'