हो गया। इस घटना के उपरांत जायसी की मनोवृत्ति ईश्वर की ओर और भी अधिक हो गई। उक्त घटना की ओर संकेत लोग अखरावट के इस दोहे में बताते हैं--
बंदहि समद्र समान, यह अचरज कासौं कही।
जो हेरा सो हेरानद, मुहमद आपुहिं आपु महँ।।
कहते हैं कि जायसी के पुत्र थे, पर वे मकान के नीचे दबकर, या ऐसी ही किसी और दुर्घटना से मर गए। तब से जायसी संसार से और भी अधिक विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घरबार छोड़कर इधर उधर फकीर हो कर घूमने लगे। वे अपने समय के एक सिद्ध फकीर माने जाते थे और चारों ओर उनका बड़ा मान था। अमेठी के राजा रामसिंह उनपर बड़ी श्रद्धा रखते थे। जीवन के अंतिम दिना में जायसी अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। कहते हैं कि उनका मृत्यु विचित्र ढंग से हुई। जब उनका अंतिम समय निकट आया तब उन्होंने अमेठी के राजा से कह दिया कि मैं किसी शिकारी की गोली खाकर मरूँगा। इसपर अमेठी के राजा ने पास पास के जंगलों में शिकार की मनाही कर दी। जिस जंगल में जायसी रहते थे उसमें एक दिन एक शिकरी को एक बड़ा भारी बाघ दिखाई पड़ा। उसने डरकर उसपर गोली छोड़ दी। पास जाकर देखा तो बाघ के स्थान पर जायसी मरे पड़े थे। कहते हैं कि जायसी कभी कभी योगबल से इस प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे।
काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी अपनी याददाश्त में मलिक मुहम्मद जायसी का मत्युकाल रज्जब हिजरी (सन् १५४२ ई०) दिया है। यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता। इसे ठीक मानने पर जायसी दीर्घाय नहीं ठहरते। उनका परलोकवास ४६ वर्ष से भी कम की अवस्था में सिद्ध होता है, पर जायसी ने 'पदमावत' के उपसँहार में वृद्धावस्था का जो वर्णन किया है वह स्वतः अनुभूत सा जान पड़ता है।
जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान कोट से पौन मील के लगभग है। यह वर्तमान कोट जायसी के मरने के बहुत पीछे बना है। अमेठी के राजानों का पुराना कोट जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था। अतः यह प्रवाद कि अमेठी के राजा को जायसी की दुग्रा से पुत्र हुआ और उन्होंने अपने कोट के पास उनकी कब्र बनवाई, निराधार है।
मलिक मुहम्मद, निजामुद्दीन औलिया की शिष्यपरंपरा में थे। इस परंपरा की दो शाखाएँ हुईं--एक मानिकपुर, कालपी ग्रादि की, दूसरी जायस की। पहली शाखा के पीरों की परंपरा जायसी ने बहुत दूर तक दी है। पर जायसवाली शाखा की पूरी परंपरा उन्होंने नहीं दी है। अपने पीर या दीक्षागुरु सैयद अशरफ जहाँगीर तथा उनके पुत्र पौत्रों का ही उल्लेख किया है। सूफी लोग निजामुद्दीन औलिया की मानिकपुर कालपीवाली शिष्य-परंपरा इस प्रकार बतलाते हैं