पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२६२

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पदमावत

८ o हीं छरी कविलास के जेहि सरि पूज न कोइ । मोहि तजि संवरि जो श्रोहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ ? ॥ ३ ॥ भलेहि रंग अछरी तोर राता । मोहि दूसरे सर्दी भाव न बाता ॥ मोहि मोहि मुंवरि मुए तस लाहा । नैन जो देखसि पूछ िकाहा । मुबह ताहि जिउ देइ न पावा । तोहि आस ग्री टाहि मनावा ॥ जों जिउ देइहों ओोहि के आासा । न जानौं काह होइ कविलासा ॥ हौं कबिलास काह ले करऊँ। सोइ कबिलास लागि जेहि मर॥ श्रोहि के बार जीउ नहि बातें । सिर उतारि नेवछावरि सार्जे ॥ ताकर चाह कहै जो आाई। दोउ जगत तेहि देहूँ बड़ाई ॥ मोहि न मोरि किशु आासा, हीं मोहि आास करेगें । तेहि निरास पीतम कहूँजिउ न देऊँ का देहँ ? ॥ ४ ॥ गौरइ हेंसि महस स कहा । निहवें एहि बिरहानल दहा। निहत्र यह मोहि कारन तपा। परिमल पेम न छाछ पा। निही पेम पीर यह जागा। कसे कसौटी कंचन लागा ॥ बदन पियर जल डभकहि नैना। परगट दुवौ पेम के बैना । यह एहि जनम लागि श्रोहि सीझा। चहै न अरहि, मोही रीझा ॥ देवन्ह के पोता। तुम्हारी सरन राम रन जीता ॥ एहू कहें तस मया. करे । पुरवहु आास कि हत्या लेहू ॥ हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बह अपराध । तीसर यह लेउ माथेजौ लेने के साध ॥ ५ ॥ सुनि के महादेव के भाखा। सिद्धि पुरुष राजे मन लाखा ॥ सिंद्धहि भंग न बैठे माखी सिद्ध पलक नहि लावे प्रखी । सिद्धह संग होइ नहि छाया । सिद्धह होइ भूख नहिं माया । जेहि जग सिद्ध गोसाई कीन्हा। परगट गुपुत रहै को चोन्हा ? ॥ बैल चढ़ा कुटी । गिरजापति महेस् कर भसू सत ग्राह । चीन्है सोढ़ रहै जो खोजा। जस विक्रम श्री राजा भोजा ॥ जो श्रोहि तंत सत्त स हेरा। गएड हेराड़ जो श्रोहि भा मेरा ॥ बिनू गुरु पंथ न पाइय, भूलें सो जो मेट ॥ जोगी सिद्ध होइ तबजब गोरख सकें भेंट ॥ ६ ॥ (४) तस = ऐसा (इस अर्थ में प्रायः प्रयोग मिलता है) । कविलास = स्वर्ग । बाॐ = बचाऊँ। सारी = कहें। चाह खबर । निरास = जिसे किसी की आाशा न हो, जो किसी के ग्रासरे का न हो।(५) नाले = रहता है कसे = । कसने पर लागा = प्रतीत हुआा। भकहिडबडबाते हैं, नाईं। बैना = दोनों (पीले मुख औौर गीले नेत्र) प्रेम के व बत प्रकट करते हैं । हत्या हुई दोनों कंधों पर एक एक (कवि ने शिव के कंधे पर हत्या की कल्पना क्यों की है, यह नहीं स्पष्ट होता)। (६) लाख लखा, पहचाना । मेरा = मेल, मैट । जो मेट = जो इस सिद्धांत को नहीं मानता।