पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२६३

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पार्वती महेश खंड

पार्वती महेश खंड ८१ रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा मातं पिसे जनम कित पाला। जो अस फाँद पेम गिउ घाला ? धरती सरग मिले हुत दोऊ केइ निनार के दीन्ह बिछोऊ पदिक पदारथ कर हत खोवा। हि रतनरतन तस रोवा गगन मेघ जस बरस भला। पुहमी पूरि सलिल बहि चला सायर टूट, सिखर ग पाटा। सूझ न बार पार कर्ह घाटा पौन पान होई होड़ सब गिरई। पैम के फंद कोइ जानि परई तस रोवं जस जिउ ज, गिरे रक्त नौ माँस रोथू रोवे सब रोवह सूत सूत भरि ग्राँस ॥ ७ वडि उठा संसारू। महादेव तब भएछ भयारू कहेन्हि ‘न "रोव, बहुत हैं रोवा। अब ईसर भा, दारिद खोवा जो दुख सहै होइ दुख श्रोकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका अब मैं सिद्ध भएसि सिधि पाई। दरपन क्या छूट गइ काई कहीं बात अब हों उपदेसी। लागू थ, ज लगि चोर सेंधि नहि देई। राज केरि न मू से पेई चढ़े न जाइ बार नोहि ‘दी। परं त सेंधि सीस बल दी कहीं सो तेहि सिंहलगढ़, खंड सात चढ़ाव फिरा न कोई जियत जिउ सरग पथ देइ पाव गढ़ तस बाँक जैसि तोरि काया। पुरुष देवू औोही है छाया पाइय नाहि जूझ हटि कोन्हे । जैइ पावा तेइ चापुहि चीन्हे नौ पौरी तेहि" गढ़ मझियारा। ऑी तहें फिरहि पाँच कोटवारा दसवें दुमार गुपुत एक ताका । अगम चढ़ावबाट सुष्ठि बाँका भेदे जाई सौ वह घाटी। जो लहि भेदचहे होड़ चाँटी। गढ़ तर कुंड, सुरंग तेह माहाँ । तहें वह पंथ कहीं तौहि पा। चोर बैठ जस संधि संवारी। जमा पैत जस लाब जुटागे जस मरजिया समुद बैंसहाथ नाव तब सीप ढ़ि लेइ जो सरग दुारी, चड़े सो सिंघलदीप दसवें दुधार ताल के लेखा। उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा जाइ स तहाँ साँस मन बंधो। जस चैंसि लीन्ह कान्ह कालिंदी (७) गहबरा बबराया पदिक = ताबीज, जंतर पाटा = (पानी से) पट गया। (८) मयारू =मया करनेवालादयाई ईसर ऐश्वर्या आकाँ उसको (ोकाँ नोकझं। मूर्स पेई = मूसने पाता चढ़े न दी = कूदकर चढ़ने से उस द्वार तक नहीं जा सकता। () ताका उसका। जो लहि ‘चाँटी = जो गुरु से भेद पाकर चींटी के समान धीरे धीरे (योगियों के पिपीलिका मार्ग से ) चढ़ता है । पैंत = दाँव । (१०) ताल के लेखा ताड़ के समान (चा)