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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२६७

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राजा गढ़ छेंका खंड

अबहीं बेगहि करौ सँजोऊ। तस मारहु हत्या नहिं होऊ॥
मंत्निन्ह कहा रहौ मन बूझे। पति न होइ जोगिन्ह सौं जूझे॥
ओहि मारै तौ काह भिखारी। लाज होइ जौं माना हारी॥
ना भल मुए, न मारै मोखू। दुवौ बात लागै सम दोखू॥
रहै देह जौ गढ़ तर मेले। जोगी कित आछैं बिनु खेले? ॥
आछै देहु जो गढ़ तरे, जनि चालहु यह बात।
तहँ जो पाहन भख करहिं, अस केहिके मुख दाँत॥ ६ ॥
गए बसीठ पुनि बहुरि न आए। राजै कहा बहुत दिन लाए॥
न जनों सरग बात दहुँ काहा। काहु न आइ कही फिरि चाहा॥
पंख न काया, पौन न पाया। केहि बिधि मिलौं होइ कै छाया? ॥
सँवरि रकत नैनहिं भरि चूआ। रोइ हँकारेसि माझी सूआ॥
परी जो आँसु रकत कै टूटी। रेंगि चलीं जस बीरबहूटी॥
ओहि रकत लिखि दीन्ही पाती। सुआ जो लीन्ह चोंच भइ राती॥
बाँधी कंठ परा जरि काँठा। बिरह क जरा जाइ कित नाठा?
मसि नैना, लिखनी बरुनि, रोइ रोइ लिखा अकत्थ।
आखर दहै, न कोइ छुवै, दीन्ह परेवा हत्थ॥ ७ ॥
औ मुख बचन जो कहा परेवा। पहिले मोरि बहुत कहि सेवा॥
पुनि रे सँवार कहेसि दूजी। जो बलि दीन्ह देवतन्ह पूजी॥
सो अबहीं तुम्ह सेव न लागा। बलि जिउ रहा, न तन सो जागा॥
भलेहि ईस हू तुम्ह बलि दीन्हा। जहँ तुम्ह तहाँ भाव बलि कीन्हा॥
जौ तुम्ह मया कीन्ह पगु धारा। दिस्टि देखाइ बान बिष मारा॥
जो जाकर अस आसामुखी। दुख महँ ऐस न मारे दुखी॥
नैन भिखारि न मानहिं सीखा। अगमन दौर लेहिं पै भीखा॥
नैनहिं नैन जो बेधि गए, नहिं निकसैं वै बान।
हिये जो आखर तुम्ह लिखे, ते सुठि लीन्ह परान॥ ८ ॥
ते बिषबान लिखौ कहँ ताई। रकत जो चुआ भीजि दुनियाईं॥
जान जो गारै रकत पसेऊ। सुखी न जान दुखी कर भेऊ॥
जेहि न पीर तेहिं काकरि चिंता। पीतम निठुर होइँ अस निता॥


(६) सँजोऊ = समान। पति = बड़ाई, प्रतिष्ठा। जोगी...खेले = योगी कहाँ रहते हैं बिना (और जगह) गए? (७) चाहा = चाह, खबर। माझी = मध्यस्थ। नाठा जाइ = नष्ट या मिटाया जाता है।। मसि = स्याही। लिखनी = लेखनी, कलम। अकत्थ = अकथ्य बात। (८) सेवा कहि = विनय कहकर। सँवार = संवाद, हाल। बलि जिउ रहा...जागा = जीव तो पहिले ही बलि चढ़ गया था, (इसी से तुम्हारे आने पर) वह शरीर न जगा। ईस = महादेव । भाव = भाता है। आसामुखी = मुख का आसरा देखनेवाला। (९) जान = जानता है।