पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२६७

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राजा गढ़ ठेका खंड ८५ ऑो वहीं बेगहि करो सँजोऊ। तस मारह हत्या नहिं होऊ ॥ मंत्निन्ह कहा रहौ मन बू। पति न होइ जोगिन्ह सौ जू श्रोहि मारै तो काह भिखारी। लाज हो जौं माना हारी ॥ ना भल मुएन मारै मोडू । दुवौ बात ला सम दोनू रहै देह जौ गढ़ तर मेले। जोगी कित आा बिनु खेले ? ॥ श्रा देतु जो गढ़ तरेजनि चालह यह बात । तहें जो पाहन भख करहि, नस केहिके मुख दाँत ॥ ६ ॥ गए बसोठ पुनि बहुरि न आाए। राजे कहा बहुत दिन लाए ॥ न जनों सरग बात दहें काहा। काहु न आइ कही फिरि चाहा ॥ पंख न काया, पौन न पाया। केहि बिधि मिलौं होड़ के छाया ? ॥ मुंवरि रकत नैनहि भरि चुआ। रोइ हंकारेसि माझी सूआ ॥ परी जो प्राँस रकत टो। चलीं जस बीरबहटी । के रेंग ओोहि रकत लिखि दोन्ही पाती। सुजा जो लीन्ह चोंच भइ रोती । बाँधी कंठ परा जरि काँठा। विरह क जरा जाइ कित नाठा ? मसि नैना, लिखनी बरनि, राह रोइ लिखा अकत्थ । भाखर दहैन कोइ छुट्ट, दीन्ह परेवा हत्थ : ७ औ मुख बचन जो कहा परेवा। पहिले मोरि बहुत कहि सेवा ॥ पुनि सँवार कहे अस दूजी। जो बलि दीन्ह देवतन्ह पूज ॥ सो अबहीं तुम्ह सेव न लागा। बलि जिउ रहा, न तन सो जागा ॥ भलेहि ईस हूं तुम्ह बलि दीन्हा। जहें तुम्ह तहाँ भाव बलि कीन्हा ॥ जो मयी तुम्ह कीन्ह पशु धारा। दिस्टि देखाइ बान बिष मारा । जो जाकर अस आासामुखी दुख महें ऐस न मारे दुखी ॥ नैन भिखारि न मानह सीखा। दौर लेहि मै भीखा। गमन नैनह नैन जो बेधि गए, नहि निकटें वे बान । हिये जो माखर तुम्ह लिखेते सुठि लीन्ह परान 1 ८ । ते विषबान लिखी ताई। रकत चुन भी िदुनियाई कहूँ जो श्रा । जान जो गारै रकत पसेऊ। सखी न जन दखी ।। जेहि न पीर तेहि काकरि चिंता । पौतम निवुर होटू अस निता ॥ () = समान ६ सँजोऊ । पति ८ बडाई, प्रतिष्ठा। जोगी”"खेले = योगी। (और जगह) मध्यस्थ । नाठा जाइ = नष्ट या मिटाया जाता है किया । मसि = स्याही। लिखनी , कलम = लेखनी। अकथ = अकथ्य बात । (८) सेवा कहि = विनय कहकर । सँवार = संवादहाल । बलि जिउ रहा‘जागा = जीव तो पहिले । ही बलि चढ़ गया था, (इसी से तुम्हारे थाने पर) वह शरीर न जगा । ईस = महादेव । भाव = भाता है । आासामुखी = मुख का आासरा देखनेवाला (९) जान = जानता है ।