कासौं कहौं विरह कै भाषा? । जासौ कहौं होइ जरि राखा॥
बिरह आगि तन बन बन जरे। नैन नीर सब सायर भरे॥
पाती लिखी सँवरि तुम्ह नावाँ। रकत लिखे आखर भए सावाँ॥
आखर जरहि न काहू छुआ। तब दुख देखि चला लेइ सुआ॥
अब सुठि मरौं, छूँछि गइ (पाती) पेम पियारे हाथ।
भेंट होत दुख रोइ सूनावत जीउ जात जौ साथ॥ ९ ॥
कंचन तार बाँधि गिउ पाती। लेइ गा सुआ जहाँ धनि राती॥
जैसे कँवल सूर कै आसा। नीर कंठ लहि मरत पियासा॥
बिसरा भोग सेज सुख बासा। जहाँ भौंर सब तहाँ हुलासा॥
तौ लगि धीर सुना नहिं पीऊ। सुना त घरी रहै नहिं जीऊ॥
तौ लगि सुख हिय पेम न जाना। जहाँ पेम कत सुख बिसरामा? ॥
अगर चँदन सुठि दहै सरीरू। औ भा अगिनि कया कर चीरू॥
कथा कहानी सुनि जिउ जरा। जानहुँ घीउ बसंदर परा॥
बिरह न आपु सँभारै, मैल चीर, सिर रूख।
पिउ पिउ करत राति दिन, जस पपिहा मुख सूख॥ १० ॥
ततखन गा हीरामन आई। मरत पियास छाँह जनु पाई॥
भल तुम्ह, सुआ? कीन्ह है फेरा। कहहु कुसल अब पीतम केरा॥
बाट न जानौ, अगम पहारा। हिरदय मिलान होइ निनारा॥
मरम पानि कर जान पियासा। जो जल महँ ता कहँ का आसा? ॥
का रानी यह पूछहु बाता। जिनि कोइ होइ पेम कर राता॥
तुम्हरे दरसन लागि बियोगी। अहा सो महादेव मठ जोगी॥
तुम्ह बसंत लेइ तहाँ सिधाई। देव पूजि पुनि ओहि पहँ आई॥
दिस्टि बान तस मारेहु, घायल भा तेहि ठाँव।
दूसरि बात न बोलै, लेइ पदमावति नावँ॥ ११ ॥
रोवँ रोवँ वै बान जो फूटे। सूतहि सूत रुहिर मुख छूटे॥
नैनहिं चली रकत कै धारा। कंथा भीजि भएउ रतनारा॥
सूरुज बूड़ि उठा होइ ताता। औ मजीठ टेसू बन राता॥
भा बसंत रातीं बनसपती। औ राते सब जोगी पखेरू॥
पुहुमि जो भीजि, भयेउ सब गेरू। औ राते तहँ पंखि पखेरू॥
राती सती अगिनि सब काया। गगन मेघ राते तेहिं छाया॥
ईंगुर भा पहार जौं भीजा। पै तुम्हार नहिं रोवँ पसीजा॥
तहाँ चकोर कोकिला, तिन्ह हिय मया पईठि।
नैन रकत भरि आए, तुम्ह फिरि कीन्ह न दीठि॥ १२ ॥
सावाँ = श्याम। छूँछि खाली। (१०) नीर कंठ लहि...पियासा = कंठ तक पानी में रहता है फिर भी प्यासों मरता है। बसंदर = वैश्वानर, अग्नि। बिरह = विरह से। रूख = बिना तेल का। (१२) रतनारा = लाल। नैन रकत भरि आए = चकोर और पहाड़ी कोकिला की आँखें लाल होती हैं।