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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२६९

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राजा गढ़ छेंका खंड

ऐस बसंत तुमहिं पै खेलहु। रकत पराए सेंदुर मेलेहु॥
तुम्ह तौ खेलि मँदिर महँ आईं। ओहि क मरम पै जान गोसाईं॥
कहेसि जरै को बारहि बारा। एकहि बार होहु जरि छारा॥
सर रचि चहा आगि जो लाई। महादेव गौरी सुधि पाई॥
आइ बुझाइ दीन्ह पथ तहाँ। मरन खेल कर आगम जहाँ॥
उलटा पंथ पेम के बारा। चढ़ै सरग, जौ परै पतारा॥
अब धँसि लीन्ह चहै तेहि आसा। पावै साँस, कि मरै निरासा॥
पाती लिखि सो पठाई, इहै सबै दुख रोइ।
दहुँ जिउ रहै कि निसरै, काह रजायसु होइ? ॥ १३ ॥
कहि कै सुआ जो छोड़ेसि पाती। जानहु दीप छुवत तस ताती॥
गीउ जो बाँधा कंचन तागा। राता साँव कंठ जरि लागा॥
अगिनि साँस सँग निसरै ताती। तरुवर जरहिं ताहि कै पाती॥
रोइ रोइ सुआ कहै सो बाता: । रकत कै आँसु भएउ मुख राता॥
देख कंठ जरि लाग सो गेरा। सो कस जरै बिरह अस घेरा॥
जरि जरि हाड़ भयउ सब चुना। तहाँ मासु का रकत बिहूना॥
वह तोहि लागि कया सब जारी। तपत मीन, जल देहि पवारी॥
तोहि कारन वह जोगी, भसम कीन्ह तन दाहि ।
तू असि निठुर निछोही, बात न पूछै ताहि॥ १४ ॥
कहेसि ‘सुआ! मोसौं सुनु बाता। चहौं तौ आाज मिलौं जस राता॥
पै सो मरम न जाना भोरा। जानै प्रीति जो मरि कै जोरा॥
हौं जानति हौं अबहीं काँचा। ना वह प्रीति रंग थिर राँचा॥
ना वह भएउ मलयगिरि बासा। ना वह रवि होइ चढ़ा अकासा॥
ना वह भयउ भौंर कर रंगू। ना वह दीपक भएउ पतंगू॥
ना वह करा भृंग कै होई। ना वह आपु मरा जिउ खोई॥
ना वह प्रेम औटि एक भयऊ। ना ओहि हिये माँझ डर गयऊ॥
तेहि का कहिय रहब जिउ, रहै जो पीतम लागि॥
जहँ वह सुनै लेइ धँसि, का पानी, का आगि॥ १५ ॥
पुनि धनि कनकपानि मसि माँगी। उतर लिखत भीजी तन आँगी॥
तस कंचन कहँ चहिय सोहागा। जौं निरमल नय होइ तौ लागा॥
हौं जो गइ शिव मंडप भोरी। तहँवाँ कस न गाँठ तैं जोरी॥


(१३) दीन्ह पथ तहाँ = वहाँ का रास्ता बताया। मरन खेल...जहाँ = जहाँ प्राण निछावर करने का आागम है। उलटा पंथ = योगियों का अंतर्मुख मार्ग, विषयों की ओर स्वभावतः जाते हुए मन का उलटा पोछे की ओर फेरकर ले जानेवाला मार्ग। (१४) ताहि कै पाती = उसकी उस चिट्ठी से। देखु कंठ जर...गेरा = देख, कंठ जलने लगा (तब) उसे गिरा दिया। देहि पवारी = फेंक दे। (१५) काँचा = कच्चा। राँचा = रँगा गया। औटि = पगकर। (१६) धनि = स्त्री।