पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२६९

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राजा गढ़ छेंका खंड

राजा गढ़ ठेका खड ८७ ऐस बसंत तुमह मै खेलढ़। रकत कम पराए सेंदुर मेले। तुम्हू तो खेलि मंदिर महें ग्राईं । मोहि मरम पे जान गोसाईं कहेसि ज’ को बारह बारा। एकहि बार होह जरि छारा ॥ सर रचि चहा आागि जो लाई। महादेव गौरी सुधि पाई। प्राइ बुझाइ दीन्ह पथ तहाँ । मरन खेल कर मागम जहाँ । उलटा पथ पम के बारा। चढ़ सरग, जौ पड़े पतारा । अब चेंसि लीन्ह चहै तेहि आासा। पावै साँस, कि मरे निरासा ॥ पाती लिखि सो पठाईइहै सब दुख रोड़ । दहें जिउ रहै कि निस, काह रजायसु होइ । १३ कहि के सुना जो छोड़ेसि पाती । जानहु ताती दीप धवत तस । गीउ जो बाँधा कंचन तागा। राता साँव कट जरि लागा। अगिनि साँस सेंग निसरें ताती। तरुवर जरहि ताहि के पाती। रोइ रोइ सुश्रा कहै सो बाता :। रकत के ग्राँसू भएड मुख राता ॥ देख लाग सो गेरासो जर बिरह घेरा कंट जरि । कस प्रस । जरि जरि हाड़ भयड सब चुना। तहाँ मासु का रकत बिना ॥ वह तोहि लागि कया सब जारी। तपत मीन, जल देहि पवारी ॥ तोहि कारन वह जोगी, भसम कीन्ह तन दाहिए । तू प्रसि निडर निछोही, बात न पूछे ताहि 1१४। कसि ‘सुआ ! मोस * सुनु बाता। चहौं तौ आाज मिल जस राता ॥ पै सो मरम न जाना भोरा। जानै प्रीति जो मरि के जोरा ॥ हीं जानति हीं अबहीं कचा। ना वह प्रोति रंग थिर रॉचा ॥ ना वह भएउ मलयगिरि बासा। ना वह रवि होइ चढ़ा अकासा । ना वह भय भौंर कर रंगू । ना वह दीपक भएउ पतंगू । । ॥ ना वह प्रेम औौटिं एक भयऊ। ना ओोहि हिये माँग डर गयज ॥ तेहि का कहि रहब जिदरहै जो पीतम लागि । जह वह सुन लेइ चैंसि, का पानी, का अगि 1१५। पुनि धनि कनकपानि मति माँगी। उतर लिखत भीजी तन आंगी । तस कंचन कहें चहि सोहागा। जो निरमल नग होइ तौ लागा ॥ हाँ जो गइ शिव मंडप में र। तहंव कस ने गाँठ हैं जोरी I (१३) दीन्ह पथ तहाँ = वहाँ का रास्ता बताया। मरन खेल:"जहाँ = जहाँ प्राण निछावर करने का आागम है। पंथ = योगियों का अतर्मख , उलटा मार्ग विषयों की हुए ओोर स्वभावतः जाते मन का उलटा पोछे की ओर फेरकर ले जानेवाला मार्ग । () ताहि पाती हैं उस चिट्ठी से। देख कंठ जरगेरा = १४के उसकी देख, कंधु जलने लगा (तब) उसे गिरा दिया। देहि पवारी = फेंक दे । (१५) कचा कच्चा । = रेंगा गया । औौटि = पगकर। (१६) धनि = स्त्री। = । Tचा