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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२७७

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गंधर्वसेन मंत्री खंड

प्रीति बेलि अरुझै जब, तब सुछाँह सुख साख।
मिलै पिरीतम आइ कै, दाख बेलि रस चाख॥ १६ ॥
पदमावति उठि टेकै पाया। तुम्ह हुँत देखौं पीतम छाया॥
कहत लाज औ रहै न जीऊ। एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥
सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥
ओहट होइ मरौं तौ झूरी। यह सुठि मरौं जो नियर,न दूरी॥
घट महँ निकट, बिकट होइ मेरू। मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥
तुम्ह सो मोर खेवक होइ मेरु। उतरौं पार तेही विधि सेवा॥
दमनहि नलहिं जो हंस मेरावा। तुम्ह हीरामन नाँव कहावा॥
मूरि सजीवन दूरि है, सालै सकती बानु।
प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावह भानु॥ १७ ॥
हीरामन भुईं धरा लिलाटू। तुम्ह रानी जुग जुग सुखपाटू॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी। सो जानिय अब नाहीं दूरी॥
पिता तुम्हार राज कर भोगी। पूजै बिप्र मरावै जोगी॥
पौंरि पौंरि कोतवार जो बैठा। पेम क लुबुध सुरंग होइ पैठा॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू। आवत बार धरा कै चोरू॥
अब लेइ गए देइ ओहि सूरी। तेहि सौं अगाह विथा तुम्ह पूरी॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी। कया क रोग जानु पै रोगी॥
रूप तुम्हार जीउ कै (आपन) पिंड कमावा फेरि।
आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पावैं हेरि॥ १८ ॥
हीरामन जो बात यह कही। सूर के गहन चाँद तब गही॥
सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी। सो कित दुख मानै करमुखी? ॥
अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा। मोहि ओहि साथ धरति गगनेहा॥
रहै त करौं जनम भरि सेवा। चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥
कहेसि कि कौन करा है सोई। पर काया परवेस जो होई॥
पलटि सो पंथ कौन विधि खेला। चेला गुरू गुरू भा चेला॥
कौन खंड अस रहा लुकाई। आवै काल, हरि फिरि जाई॥
चेला सिद्धि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।
गूरू करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥ १९ ॥


(१७) तुम्ह हुँत = तुम्हारे द्वारा। ओहट = ओट में, दूर। मेरू = मेल मिलाप। मिलहिं न मिले = मिलने पर भी (पास होने पर भी) नहीं मिलता। दमन = दमयंती। मुकुत होत है = छूटता है। (१८) रूप तुम्हार जीउ...फेरि = तुम्हारे रूप (शरीर) में अपने जीव को करके (परकाय प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर प्राप्त किया। (१९) करमुखी = काले मुँहाली। गगनेहा = गगन में, स्वर्ग में। करा = कला । चेला सिद्धि सो पावे...भेद = यह शुक का उत्तर है। अछेद = अभेद, भेद भाव का त्याग।