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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८३

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रत्नसेन सूली खंड

जो पै बात होइ भलि आगे। कहा चहिय, का भा रिस लागे॥
राजकुँवर यह, होहि न जोगी। सुनि पदमावति भएउ बियोगी॥
जंबूदीप राजघर बेटा। जो है लिखा सो जाइ न मेटा॥
तुम्हरहि सुआ जाइ ओहि आना। औ जेहि कर, बर कै तेइ माना॥
पुनि यह बात सुनी सिव लोका। करसि बियाह धरम है तोका॥
माँगै भीख खपर लेइ, मुए न छाँड़ै बार।
बूझहु, कनक कचोरी भीखि देहु, नहिं मार॥ १३ ॥
ओहट होहु रे भाँट भिखारी। का तू मोहिं देहि असि गारी।
को मोहिं जोग जगत होइ पारा। जा सहुँ हेरौं जाइ पतारा॥
जोगी जती आव जो कोई। सुनतहिं त्रासमान भा सोई॥
भीखि लेहिं फिरि माँगहिं आगे। ए सब रैनि रहे गढ़ लागे॥
जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा। नाहिं बेधि सूरी जिउ लीन्हा॥
जेहि अस साध होइ जिउ खोवा। सो पतंग दीपक तस रोवा॥
सुर, नर, मुनि सब गंध्रब देवा। तेहि को गनै? करहिं निति सेवा॥
मोसौं को सरवरि करै? सुनु, रे झूठे भाँट।
छार होइ जौ चालौं, निज हस्तिन कर ठाट॥ १४ ॥
जोगी घिरि मेले सब पाछे। उरए माल आए रन काछे॥
मंत्रिन्ह कहा, सुनहु हो राजा। देखहु अब जोगिन्ह कर काजा॥
हम जो कहा तुम्ह करहु न जूझू। होत आव दर जगत असूझू॥
खिन इक महँ झुरमुट होइ बीता। दर महँ चढ़ि जो रहै सो जीता॥
कै धीरज राजा तब कोपा। अंगद आइ पाँव रन रोपा॥
हस्ति पाँच जो अगमन धाए । तिन्ह अंगद धरि सूँड़ फिराए॥
दीन्ह उड़ाइ सरग कहँ गए । लौटि न फिरे, तहँहिं के भए॥
देखत रहे अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न आय।
जोगिन्ह कर अस जूझब, भूमि न लागत पाय॥ १५ ॥
कहहिं बात, जोगी अब आए। खिनक माहँ चाहत हैं भाए॥
जौ लहि धावहिं अस कै खेलहु। हस्तिन केर जूह सब पेलहु॥
जस गज पेलि होहिं रन आगे। तस बगमेल करहु सँग लागे॥


(१४) ओहट = ओट, हट परे। (१५) मेले = जुटे। उरए = उत्साह या घाव से भरे (उराव = उत्साह, हौसला)। माल = मल्ल, पहलवान| दर = दल। झुरमुट = अँधेरा। होइ बीता = हुआ चाहता है। चढ़ि जोर है = जो अग्रसर होकर बढ़ता है। अगमन = आगे। अचंभौ = अद्भुत व्यापार। (१६) अस कै = इस प्रकार। जूह = यूथ। जस = जैसे ही। तस = तैसे ही। बगमेल = सवारों की पंक्ति। अगसरी = अग्रसर, आगे।