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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८५

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रत्नसेन सूली खंड

राजै पुनि पूछी हँसि बाता। कस तन पियर,भएउ मुख राता॥
चतुर बेद तुम पंडित, पढ़ै शास्त्र औ बेद।
कहा चढ़ाएहु जोगिन्ह, आइ कीन्ह गढ़ भेद॥ १९ ॥
हीरामन रसना रस खोला। दै असीस, कह अस्तुति बोला॥
इंद्रराज राजेसर महा। सुनि होइ रिस, कछु जाइ न कहा॥
पै जो बात होइ भलि आगे। सेवक निडर कहै रिस लागे॥
सुवा सुफल अमृत पै खोजा। होहु न राजा विक्रम भोजा॥
हौं सेवक, तुम आदि गोसाई। सेवा करौं जिऔं जब ताईं॥
जेई जिउ दीन्ह देखावा देसू। सो पै जिउ महँ बसे,नरेसू! ॥
जो ओहि सँवरै 'एकै तुही'। सोई पंखि जगत रतमुहीं॥
नैन बैन ओ सरबन सब ही तोर प्रसाद।
सेवा मोरि इहै निति बोलौं आसिरवाद॥ २० ॥
जो अस सेवक जेइ तप कसा। तेहि क जीभ पै अमृत बसा॥
तेहि सेवक के करमहिं दोषू। सेवा करत करै पति रोषू॥
औ जेहि दोष निदोषहि लागा। सेवक डरा जीउ लेइ भागा॥
जो पंछी कहवाँ थिर रहना। ताकै जहाँ जाइ भए डहना॥
सप्त दीप फिर देखेउँ, राजा। जंबूदीप जाइ तब बाजा॥
तब चितउर गढ़ देखेउँ ऊँचा। ऊँच राज सरि तोहि पहुँचा॥
रतनसेन यह तहाँ नरेसु। एहि आनेउँ जोगी के भेसू॥
सुआ सुफल लेउ आएउँ, तेहि गुन मुख रात।
कया पीत सो तेहि डर सँवरौं विक्रम बात॥ २१ ॥
पहिले भएउ भाँट सत भाखी। पुनि बोला हीरामन साखी॥
राजहि भा निसचय, मन माना। बाँधा रतन छोरि कै आना॥
कुल पूछा चौहान कुलीना। रतन न बाँधे होइ मलीना॥


(२०) होहु न...भोजा = तुम विक्रम के समान भूल न करो। (कहानी प्रसिद्ध है कि एक सूए ने राजा विक्रम को दो अमृतफल यह कहकर दिए कि जो यह फल खायगा वह बुड्ढे से जवान हो जायगा। राजा ने फल रख छोड़े। संयोग से एक फल में साँप के दाँत लग गए। वही फल परोक्षा के लिये एक कुत्ते को खिलाया गया और वह मर गया। राजा ने क्रुद्ध होकर सूए को मरवा डाला और बचे हुए दूसरे फल को बगीचे में फेंकवा दिया। उस फल को एक बुड्ढ़े माली ने उटाकर खा लिया और वह जवान हो गया। इसपर विक्रम बहुत पछताया)। रतमुहीं = लाल मुँहवाली। (२१) तप कसा = तप में शरीर को कसा। पति = स्वामी। निदोषहिं = बिना दोष के। बाजा = पहुँचा। सरि = बराबरी। सँवरौं विक्रम बात = विक्रम के समान जो राजा गंधर्वसेन है उसके कोप का स्मरण करता हूँ; ऊपर यह आया है कि 'होहु न राजा विक्रम भोजा'। (२२) साखी = साक्षी।