पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८५

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रत्नसेन सूली १०३ राजे पुनि पूछी हंसि बाता । कस तन पियरभएउ मुख राता ॥ चतुर बेद तुम पंडित, प& शास्त्र औी वेद । कहा चढ़ाएहु जोगिन्ह, आाड़ कीन्ह गढ़ भेद 1१९। हीरामन रसना रस खोला। असीस, कह अस्तुति बोला। इंद्रराज राजेसर ने महा । सुनि होइ रिसकट जाइ न कहा ॥ पै जो बात होइ भलि भागे। सेवक निडर कहे रिस लागे । सुवा सुफल अमृत मै खोजा। होह न राजा विक्रम भोजा । हाँ सेवक, तुम ‘आादि गोसाई । सेवा कर्ण जिीं जब ताई ॥ जेई जिऊ दीन्ह देखावा देमू । सो थे जिउ महें बसेनरेस जो श्रोहि सँव 'ए' तुही'। सोई पंधि जगत रतमुहीं ॥ नन बैन प्रो सरबन सब ही तोर प्रसाद । सेवा मोरि इहै निति बोल ग्रासिरवाद ।।२०। जो अस सेवक जेइ तप कसा। तेहि क जीभ पै। अमृत बसा ॥ तेहि सेवक के करमहि दोष। सेवा करत करे पति रोष ॥ नौ जेहि दोष सेवक डरा लेइ भागा ॥ निदोषहि लागा। जीउ जो पंछी कहाँ थिर रहना। ताके जहाँ जाइ भए डहना ॥ सप्त दीप फिर देखे, राजा। जंबूदीप जाइ तब बाजा तब चितउर गढ़ देखे* ऊँचा। ऊँचे राज सरि तोहि पहुंचा । रतनसेन यह तहर्ता नरेमृ। एहि आानेजोगी के भेस ॥ सुग्रा सुफल लेउ प्राएSतेहि गुन मुख रात । कया पीत सो तेहि डर सँवरों म् विक्रम बात ।२१। पहिले सत भाखी । पुनि भएड भाँट बोला हीरामन साखी ॥ राजहि भा निसचय, मन माना। बाँधा रतन छोरि के माना। कुल“ पूछा चौहान कुलीना। रतन न बाँधे होइ मलीना (२०) होए न...भोजा = तुम विक्रम के समान भूल न करो । (कहानी प्रसिद्ध एक है कि सूए ने राजा विक्रम को दो अमृतफल यह कहकर दिए कि जो संयोग यह फल खाय गा वह बुड्ढे से ने फल जवान हो जायगा । राजा रख छोड़े । । से एक के लग गए। वहो फल परोक्षा के लिये एक कुत्ते को फल में साँप दाँत खिलाया गया मर और वह गया। राजा ने क्रुद्ध होकर सूए को मरवा डाला और बचे हुए दूसरे फल को बगीचे में फेंकवा दिया। फल को एक बुड्ढ़े माला उस ने। उटाकर खा लिया और वह जवान हो गया। इसपर विक्रम बहुत पछताया) । रतमुहीं = लाल नेहवालो। (२१) त का = तक में शरीर को कसा। पति = स्वामो । निदोहि बिना दोष के ॥ बाजा = पढ़े चा सरि = बराबरी । सँवरों विक्रम बातबिक्रम के समान जो गंधर्व न =राजा है उसके कोष का स्मरण करता हूँ; ऊपर यह आया है कि हह न राजा विक्रम भोजा' । (२२) साखो = ९ । साक्षी