पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८६

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१०४
पदमावत

१०४ हीरा दसन पान रेंग पा। बिहँसत सवे बीजू बर ताके ॥ मुद्रा नवन विनय स चापा। राजपना उघरा सब झाँपा ॥ थाना काटर एक तुखारू। कहा ‘सो , भा मसवारू । फेरा तुरय, छतीसौ कुरी । सर्वे सिंघलपुरी । कुंवर बतीसरी लच्छना, सहस किरिन जस भान । काह कसौटी कसिए ? कंचन बारह बान २२॥ देखि कुंवर बर कंचन जोगू । 'अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू ॥ मिला सो बंस अंस उजियारो। भा बरोक तब तिलक सँवारा ॥ अनिरुध कहें जो लिखा जयमारा। को मेटे ? बानासुर हारा ॥ नाजु मिली अनिरुध कहें ऊखा। देव आनंद, दैत सिर दुखा। सरग सूरभुर्ती सरवर केवा । बनखंड भंवर होइ रसलेवा । पईि कर बर पुरुब क बारी। जोरी लिखी न होइ निनारी ॥ मानुष साज लाख मन साजा। होइ सोई जो बिधि उपराजा । गए जो बाजन बाजत, जिन्ह मारन रन माहि । फिर, बाजन तेइ बाजे, मंगलचरि उनाहि ।२३ । बोल गोसाईं कर मैं माना। काह सो जुगुति उतर क हैं माना । माना बोल, हर जिउ बाढ़ा । श्री बरोक भा, टीका काढ़ा । द्रवी मिले, मनावा भला। । सुपुरुष आए श्रा कहें चला लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू। जो तप करे भोगू । सो पावे । वह मन चित जो एक अहामार लान्ह । न दूसर कहा ॥ जो अस कोई जिउ पर छेवा। देवता आइ करहि। निति सेवा । दिन दस जीवन जो दुःख देखा। भा जुग जुग सुख, जाइ न लेखा । रतनसेन संग बरनी, पदमावति क बियाह । मंदिर बेगि सेंवारामादर तूर उछाह ।२४। । मुद्रा नवन चांपा विनयपूर्वक कान कीमुद्र को पकड़ा। चांपा दबाया, थामा । झापा = ढका हुआ काटर = कट्टर तुरय = घोड़ा के । । छतोसी कुरी=छत्तीसों कुल क्षत्रिय (२३) ऑस्ति पुस्ति'=हाँ हां, वाह वाह ! बरोक - बरछा, फल दान में । केवा = कमल (सं० ) उनादि = उन्हीं जयमाजयमाल कुव। (मगलाचार के (२४2आना के लिये) । ) काह सो जTति = दूसरे उत्तर के लिये क्या यक्ति है ? लीन्ह उतारिंजोग = रत्नसेन जिसके लिये। ऐसा योग साध रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया । माएं लीन्ह == मार ही डाला चाहते थे (अवधी) । न दूसर कहा = पर दूसरी बात मुंह से न निकली । छेवा = (दु:ख) , डाला (० क्षेपणअथवा खेला।