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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८६

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पदमावत

हीरा दसन पान रँग पाके। बिहँसत सबै बीजु बर ताके॥
मुद्रा स्त्रवन विनय सौं चापा। राजपना उघरा सब झाँपा॥
आना काटर एक तुखारू। कहा सो फेरौ, भा असवारू॥
फेरा तुरय, छतीसौ कुरी। सवै सराहा सिंघलपुरी॥
कुँवर बतीसौ लच्छना, सहस किरिन जस भान।
काह कसौटी कसिए? कंचन बारह बान॥ २२ ॥
देखि कुँवर बर कंचन जोगू। 'अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू॥
मिला सो बंस अंस उजियारा। भा बरोक तब तिलक सँवारा॥
अनिरुध कहँ जो लिखा जयमारा। को मेटै? बानासुर हारा॥
आजु मिली अनिरुध कहँ ऊखा। देव अनंद, दैत सिर दुखा॥
सरग सूर, भुइँ सरवर केवा। बनखंड भँवर होइ रसलेवा॥
पच्छिउँ कर बर पुरुब क बारी। जोरी लिखी न होइ निनारी॥
मानुष साज लाख मन साजा। होइ सोई जो बिधि उपराजा॥
गए जो बाजन बाजत, जिन्ह मारन रन माहिं।
फिर बाजन तेइ बाजे, मंगलचरि उनाहिं॥ २३ ॥
बोल गोसाईं कर मैं माना। काह सो जुगुति उतर कहैं आना॥
माना बोल, हरष जिउ बाढ़ा। औ बरोक भा, टीका काढ़ा॥
दूवौ मिले, मनावा भला। सुपुरुष आपु आपु कहँ चला॥
लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू। जो तप करै सो पावै भोगू॥
वह मन चित जो एकै अहा। मारै लीन्ह न दूसर कहा॥
जो अस कोई जिउ पर छेवा। देवता आइ करहिं निति सेवा॥
दिन दस जीवन जो दुःख देखा। भा जुग जुग सुख, जाइ न लेखा॥
रतनसेन सँग बरनौ, पदमावति क बियाह।
मंदिर बेगि सँवारा, मादर तूर उछाह॥ २४ ॥




मुद्रा स्त्रवन...चाँपा = विनयपूर्वक कान की मुद्र को पकड़ा। चाँपा = दबाया, थामा। झाँपा = ढका हुआ। काटर = कट्टर। तुखारू = घोड़ा। तुरय = घोड़ा। छत्तीसौ कुरी = छत्तीसों कुल के क्षत्रिय। (२३) 'अस्ति अस्ति'= हाँ हाँ, वाह वाह! बरोक = बरच्छा, फल— दान। जयमारा = जयमाल। केवा = कमल (सं० कुव)। उनाहिं = उन्हीं के (मंगलाचार के लिये)। (२४) काह सो जुगुति...आना = दूसरे उत्तर के लिये क्या युक्ति है? लीन्ह उतारि...जोगू = रत्नसेन जिसके लिये ऐसा योग साध रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया। मारै लीन्ह = मार ही डाला चाहते थे (अवधी)। न दूसर कहा = पर दूसरी बात मुंह से न निकली। छेवा = (दु:ख) झेला, डाला (स० क्षेपण) अथवा खेला।