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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८८

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पदमावत

पदमावति धौराहर चढ़ी। दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा। इन्ह महँ सो जोगी को अहा? ॥
केइ सो जोग लै ओर निबाहा। भएउ सूर, चढ़ि चाँद बियाहा॥
कौन सिद्ध सो ऐस अकेला। जेइ सिर लाइ पेम सों खेला? ॥
का सौं पिता बात अस हारी। उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी॥[]
का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा। जेइ जयमार जीति रन लीन्हा॥
धन्नि पुरुष अस नवै न नाए। औ सुपुरुष होइ देस पराए॥
को बरिबंड बीर अस, मोहिं देखै कर चाव।
पुनि जाइहि जनवासहि, सखि! मोहिं वेगि देखाव॥ ४ ॥
सखी देखावहिं चमकै बाहू। तू जस चाँद, सुरज तोर नाहू॥
छया न रहै सूर परगासू। देखि कँवल मन होइ बिगासू॥
ऊ उजियार जगत उपराहीं। जग उजियार, सो तेहि परछाहीं॥
जस रवि, देखु, उठै परभाता। उठा छत्र तस बीच बराता॥
ओही माँझ भा दूलह सोई। और बरात संग सब कोई॥
सहसौ कला रूप विधि गढ़ा। सोने के रथ आवै चढ़ा॥
मनि माथे, दरसन उजियारा। सौंह निरखि नहिं जाइ निहारा॥
रुपवंत जस दरपन, धनि तू जाकर कंत।
चाहिय जैस मनोहर, मिला सो मनभावंत॥ ५ ॥
देखा चाँद सूर जस साजा। अस्टौ भाव मदन जनु गाजा॥
हुलसे नैन दरस मद माते। हुलसे अधर रंग रस राते॥
हुलसा बदन ओप रवि पाई। हुलसि हिया कंचुकि न समाई॥
हुलसे कुच कसनी बँद टूटे। हुलसी भुजा, वलय कर फूटे॥
हुलसी लंक कि रावन राजू। राम लखन दर साजहिं आजू॥
आजु चाँद घर आवा सूरू। आजु सिंगार होइ सब चूरू॥
आजु कटक जोरा है कामू। आजु बिरह सौं होइ संग्रामू॥
अंग अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ।
ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ॥ ६ ॥
सखी सँभारि पियावहिं पानी। राजकुँवरि काहे कँभिलानी॥
हम तौ तोहि देखावा पीऊ। तू मुरझानि, कैस भा जोउ॥
सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू। मोह कहँ भएउ चाँद कर राहू॥


(४) जेहि कहँ ससि गढ़ीं = जिसके लिये चंद्रमा (पद्मावती) बनाई गई। जयमार = जयमाल। (५) नाहु = नाथ, पति। निरखि = गड़ाकर। (६) गाजा = गरजा। अस्टौ भाव = आठों भावों से, पाठांतर — 'सहसौ भाव'। कसनी = अँगिया। लंक = कटि और लंका। रावन = (१) रमण करनेवाला, (२) रावण। झँखी = झीखकर, पछताकर।

  1. १. पाठांतर — कासौं पिता बैन अस दीन्हा। महादेव जेहि किरपा कीन्हा।