सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०९
रत्नसेन पदमावती विवाह खंड

गए जो धरमपंथ होइ राजा। तिनकर पुनि जो सुनै तो छाजा॥
जस मद पिए घूम कोइ, नाद सुनै पै घूम।
तेहितें बरजे नीक है, चढ़े रहसि कै दुम॥ १३ ॥
भइ जेवनार, फिरा खँड़वानी। फिरा अरगजा कुँहकुँह पानी॥
फिरा पान, बहुरा सब कोई। राग बियाहचार सब होई॥
माँड़ौ सोन क गगन सँवारा। बँदनवार लाग सब बारा॥
साजा पाटा छत्न कै छाँहा। रतन चौक पूरा तेहि माहाँ॥
कंचन कलस नीर भरि धरा। इंद्र पास आनी अपछरा॥
गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी। दुऔ जगत जो जाइ न छोरी॥
बॆद पढैं पंडित तेहि ठाऊँ। कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ॥
चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ सँजोग अनूप।
सुरुज चाँद सौं भूला, चाँद सुरुज के रूप॥ १४ ॥
दुऔ नाँव लै गावहिं बारा। करहिं सो पदमिनि मंगलचारा॥
चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला। चाँद आनि सूरज गिउ घाला॥
सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई। हार नखत तरइन्ह स्यों दीन्हा॥
पुनि धनि भरि अंजुलि जल लीन्हा। जोबन जनम कंत कह दीन्हा॥
कंत लीन्ह, दीन्हा धनि हाथा। जोरी गँठि दुऔ एक साथा॥
फिरहिं दुऔ सत फेर, घुटै कै। सातहु फेर गाँठि सो एकै॥
भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह।
दायज कहौं कहाँ लगि? लिखि न जाइ जत दीन्ह॥ १५ ॥
रतनसेन जब दायज पावा। गंध्रबसेन आइ सिर नावा॥
मानुस चित्त आनु किछ कोई। करैं गोसाईं सोइ पै होई॥
अब तुम्ह सिंघलदीप गोसाईं। हम सेवक अहहीं सेवकाई॥
जस तुम्हार चितउरगढ़ देसू। तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू॥
जंबूदीप दूरी का काजू? । सिंघलदीप करहु अब राजू॥
रतनसेन बिनवा कर जोरी। अस्तुति जोग जीभ कहँ मोरी॥
तुम्ह गोसाई जेइ छार छुड़ाई। कै मानुस अब दीन्हि बड़ाई॥
जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा जिवन जनम सुखभोग।
नातरु खेह पायँ कै, हौं जोगी केहि जोग॥ १६ ॥


तिनकर पुनि...छाजा = राजधर्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने तो शोभा देता है। चढ़े...दुम = मद चढ़ने पर उमंग में आकर झूमने लगता है। (१४) खँड़वानी = शरबत। (१५) हार नखत...सो ताई = हार क्या पाया मानो चंद्रमा के साथ तारों को भी पाया। त्यों = साथ। घुटै कै गाँठ को दृढ़ करके, आन गाँठि घुटि जाय त्यों मान गाँठि छुटि जाय। — बिहारी । (१६) आनु = लाए। नातरु = नहीं तो।